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विद्यापति का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत करते हुए उनके काव्यगत वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालें। अथवा, विद्यापति का कवि-परिचय प्रस्तुत करें।

विद्यापति का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत करते हुए उनके काव्यगत वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालें। अथवा, विद्यापति का कवि-परिचय प्रस्तुत करें।उपर्युक्त पद में कवि विद्यापति द्वारा वसंत को एक राजा के रूप में उसकी पूरी साज-सज्जा के साथ प्रस्तुत किया गया है

अर्थात् वासंतिक परिवंश पूरी तरह से चित्रित हुआ है।
अपने आराध्य माधव की तुलना करने के लिए कवि उपमानस्वरूप दुर्लभ श्रीखंड यानी चंदन, चन्द्रमा, माणिक और स्वर्णकदली को समानता में उपस्थित करता है किन्तु सारे ही उपमान उसे दोषयुक्त प्रतीत होते हैं, यथा-'चंदन' सुगंधि से युक्त होकर भी काष्ठ है
'चन्द्रमा' जगत को प्रकाशित करता हुआ भी एक पक्ष तक सीमित रहता है, माणिक' कीमती पत्थर होकर भी अन्ततः पत्थर है तथा स्वर्ण-कदली लज्जावश हीनभाव के वशीभूत होकर यथास्थान गड़ी रहती है ऐसे में कवि को दोषयुक्त उपमानों से अपने आराध्य की तुलना करना कहीं से भी उचित नहीं लगता है अत: माधव जैसे सज्जन से ही नेह जोड़ना कवि को उचित जान पड़ता है। इस दृष्टि से अग्रांकित पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं

विद्यापति का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत करते हुए उनके काव्यगत वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालें। अथवा, विद्यापति का कवि-परिचय प्रस्तुत करें।

"माधव कत तार करब बडाई। उपमा तोहर कहब ककरा हम,"कहितहुँ अधिक लजाई जो सिरिखण्ड सौरभ अति दुरलभ, तो पुनि काठ कठारे। जो जगदीश निसाकर तो पुनु, एकहि पच्छ उजारे।। मनि-समान अओर नहि दोसर, ताकर पाथर नाम। कनक कदलि छोट लज्जित भएरहु की कहु ठामक ठाम।। तोहर सरिस एक तोहँ माधव मन होइछ अनुमान।

सज्जन जन सओ नंह उचित थिक कवि विद्यापति भान।।" यह सही है कि महाकवि विद्यापति अपने पदों में उस सौन्दर्य के कवि के रूप में दिखायी देते हैं जिसके व्यापक प्रभाव को उनके द्वारा हृदयंगम किया गया था वह सौन्दर्य उनकी जीवन-दृष्टि है जिसमें कवि को प्रीति की नित नूतनता दृष्टिगोचर होती है और प्रेम-दर्शन का प्रतिपादन करने के लिए ही कवि द्वारा भक्ति और माधुर्य पर सर्वाधिक बल दिया गया है।

जहाँ कहीं भी उनके पदों में शृंगारिकता आयी है वहाँ मूलभाव के रूप में भक्ति की विद्यमानता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। एक भक्त कवि के रूप में वे वैष्णव, शाक्त और शैव तीनों हैं। प्रारंभ में उनकी भक्ति कृष्णोन्मुख दृष्टिगत होती है तत्पश्चात् शिव-शक्ति के प्रति उनकी भक्ति-भावना अभिव्यक्त हुई है। गंगा-स्तुति विषयक पद में शैव कवि विद्यापति द्वारा गंगा की महिमा वर्णित की गई है जिसकी यहाँ अग्रांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -

"कतसुखसार पाओल तुअ तीरे। छाडइत निकट नयन बह नीर।। करजोरि बिनमओ विमल तरंगे। पुन दरसन होए पुनमति गंगे।। एक अपराध छमब. मोर जानी। परसल माए पाए तुअ पानी।। कि करब जप-तप जोग-धआने। जनम कृतारथ एकहि सनाने।। भनइ विद्यापति समदओ तोही।

अन्तकाल जनु बिसरह मोही।।' उपर्युक्त पंक्तियों में भक्त कवि विद्यापति द्वारा गंगा की महिमा का वर्णन करते हुए गंगा से पुनर्दशन देने के लिए प्रार्थना निवेदित की गई है। गंगा के जल का स्पर्श अपने पैरों से हो जाने के कारण भक्त कवि अपराध-बोध से ग्रस्त होकर क्षमा की याचना करता है साथ ही गंगा के माहात्म्य से सम्बन्धित प्रचलित मान्यता की ओर भी संकेत करता है जिससे बहुत कुछ मिलती-जुलती भावाभिव्यक्ति आधुनिकयुगीन हिन्दी कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की अग्रांकित पंक्तियों

दर्शन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत।"

अर्थात् गंगा के दर्शन कर गंगा में स्नान करने और गंगा का जल पीने से तीनों प्रकार के यानी दैहिक,
दैवी और सांसारिक कष्ट दूर होते हैं। ____
भावपक्ष की दृष्टि से उपर्युक्त पदों को उत्कृष्टता न केवल जयदेव की काव्य- परंपरा के अनुरूप सौन्दर्य-प्रेम
के निरुपण को लेकर प्राप्त हुई है

अपितु उनके पदों में मूल भाव के रूप में भक्ति अन्तर्निहित दृष्टिगोचर होती है जो राधा-कृष्ण सहित शिव-शक्ति के प्रति
प्रकट हुई है।
गंगा-स्तवन पद उनके शैव होने का ही प्रमाण है जबकि राधा-कृष्ण सम्बन्धी पद उनकं वैष्णव होने का परिचय देते हैं
जो भी
हो उनके पदों में व्यंजित लौकिक शृंगार आध्यात्मिकता की सिद्धि में साधनस्वरूप है।
जहाँ कवि ने राधा-कृष्ण के व्यापक सौन्दर्य का चित्रण किया है वहाँ वृन्दावन में विहार करते हुए राजा वसंत भी
अत्यंत आकर्षक रूप में दिखाया देता है। वासंतिक परिवेश का जैसा सहज और आकर्षक चित्रण यहाँ हुआ है ऐसा
अन्यत्र दुर्लभ है।
कलापक्ष के अन्तर्गत महाकवि विद्यापति अपने पदों की अर्थव्यंजकता के लिए एन्द्रिय बिम्बों, प्रतीकों,
विशेषणों आदि के प्रयोग की ओर विशेष ध्यान देते हैं।
विरहिणी के विरहाश्रुओं की धार में सघन दृश्यत्व स्पर्श की प्रतीति कराता हुआ दृष्टिगत होता है

"अधर समीप दसन कर जोति।


सिन्दुर सीत वैसाउलि मोति।।' _ शृंगार के विविध पक्ष महाकवि विद्यापति के पदों में अत्यंत सहजता के
साथ उद्घाटित हुये हैं। संयोगान्तर्गत सौन्दर्य को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ है। जहाँ नायक-नायिका के अंग-
प्रत्यंग का सौन्दर्य चित्रित हुआ है वहाँ रसानुभूति को तीव्रता प्राप्त हुई है।
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नायिका की विरहावस्था का जहाँ कवि ने चित्रण किया है वहाँ कवि की अनुभूति की गहराई,
भाव-प्रवणता और तन्मयता के दर्शन होते हैं। विरहाद्गारों की अभिव्यक्ति में भाषा भी सर्वत्र कोमल और मार्मिक होती गई है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मैथिली में रचित महाकवि विद्यापति के
पद भाव पक्ष एवं कलापक्ष दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट हैं।

अपने पदों में उनके द्वारा एक ओर यदि लोकमानस की प्रणय-भावना की अभिव्यक्ति के लिए राधा-कृष्ण के आश्रयालंबन रूप को स्वीकृति मिली है जिनकी प्रेमलीला के वास्तविक चित्रण में शृंगार को सर्वाधिक महत्व प्राप्त हुआ है जिसके दोनों ही पक्षों-संयोग एवं वियोग का उद्घाटन अत्यंत सफलता के साथ हुआ है जहाँ भक्ति अन्ताप्त दृष्टिगत होती है और यह भक्ति-भावना बाद में आदि शक्ति, शिव, गंगा आदि के प्रति अभिव्यक्त हुई है इन सबके मध्य राजा के रूप में वसंत का किया जाने वाला चित्रण कवि के प्रकृति-प्रेम को दर्शाता है।

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