सूरदास की भक्ति-भावना के स्वरूप की विवेचना कीजिए। अथवा, सूरदास की भक्ति-भावना की विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।
उत्तर-'भक्ति शब्द की निर्मिति में 'भज् सेवायाम' धातु में 'क्तिन' प्रत्यय का योग मान्य है जिससे भगवान का सेवा-प्रकार का अर्थ-ग्रहण किया जाता है जिसके लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल श्रद्धा और प्रेम का योग अनिवार्य मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि भक्ति को प्राप्त होकर समस्त लौकिक बन्धनों एवं भौतिक जीवन से ऊपर उठ जाता है जहाँ उसे अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है। भक्ति के लक्षण की ओर संकेत करते हुए भागवतंकार कहते हैं
"स वै पुंसां परोधर्मो यतोभक्ति रमोक्षजे।
अहेतुक्य प्रतिहताययाऽऽत्मा संप्तसीदति।।" उपर्युक्त श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति व्यक्ति में उस भक्ति के उत्पन्न होने की अपेक्षा की गई है जिसकी निरन्तरता व्यक्ति को कामनाओं से ऊपर पहुँचाकर कृतकृत्य करती है। _ हिन्दी साहित्येतिहास में भक्तिकालीन कवि सूरदास कृष्णभक्त कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वोच्च पद पर आसनस्थ अपनी युग-निरपेक्ष चिरन्तन काव्य-सर्जना की दृष्टि से अद्वितीय कवि हैं जिनके द्वारा प्रवाहित की गई भक्ति की समाजोपयोगी पावन मन्दाकिनी आज सैकड़ों वर्षों बाद भी पूर्ववत् प्रवह्मान है जिसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि उनके पद आज भी तन्मय होकर जनसामान्य के द्वारा गाये जाते हैं।
भक्तकवि सूरदास मानव-जीवन के लिए भक्ति को अत्यावश्यक मानते हैं। उनका मानना है कि भक्ति यानी हरिभक्ति व्यक्ति को प्रपंचात्मक जगत से दूर करती है तभी तो वे हरिभक्ति का प्रचार करने के लिए लौकिक बन्धनों को त्यागकर निकल पड़ते हैं और आजीवन भजन-कीर्तन में रमे रहते हैं।
सूर के विनय के पद हों या वात्सल्य के माधुर्य के अन्तर्गत संयोग श्रृंगार के हों या फिर विप्रलंभ के सभी तरह के पद उनकी भक्ति-पद्धति की परिधि में ही आते हैं। अपने भक्त-जीवन के आरंभ में अस्थिर मन के कारण घिघियाने वाले सूरदास ही बाद में वात्सल्य और प्रेमा-भक्ति का आश्रय लेकर सख्य और माधुर्य भाव की भक्ति में तल्लीन होते दिखायी देते हैं जहाँ उन्हें अपने आराध्य का पूर्ण नैकट्य प्राप्त होता अनुभव होता है। इस अवस्था को प्राप्त होने के पश्चात् उनका मन पूर्णतया कामनाशून्य हो जाता है।
सूरदास की भक्ति-भावना के स्वरूप की विवेचना कीजिए। अथवा, सूरदास की भक्ति-भावना की विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।
यद्यपि सूरदास को संतों का 'जाति-पाँति पूछे नहिं कोय, हरि को जपै सो हरिका होय' वाला सिद्धांत कहीं से भी अस्वीकार्य नहीं था बल्कि उन्होंने स्वयं को भी जाति-पाँति की क्षुद्र परिधि से बाहर कर लिया था किन्तु उन्हें संतों का वह योग-मार्ग जिसके लिए वैराग्य को वहाँ साधन बताया गया है, वह सर्वथा अस्वीकार्य रहा क्योंकि उनकी दृष्टि में वैराग्य साधन है भक्ति-प्राप्ति का और जहाँ तक योग की बात है तो उसका उन्होंने खंडन करते हुए अपने भक्ति-निरूपण में ज्ञान और भक्ति का संतुलन कर सगुणोपासना पर सर्वाधिक बल दिया है
"अविगत गति कछु कहत न आवै। ज्यौं गूंगै मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै। परमस्वाद सबहीसु निरंतर अमित तोष उपजावै। मन-बानी कौँ अगम अगोचर, सो जाने जो पावै। रूप-रेख-गुन-जाति जुगति बिनु निरालंब कित धावै। सब विधि अगम बिचारहिँ तातें सूर सगुन-पद गावै।।"
स्पष्ट है कि सूरदास सगुणोपासक भक्तकवि हैं जिनके उपास्य हैं श्रीकृष्ण जो भक्ति के क्षेत्र में उनके लिए करुणामय स्वामी, परम उद्धारक और सर्वशक्तिमान हैं जिनकी वंदना करते हुए वे कहते हैं कि,
"चरण-कमल बंदौ हरि राई। जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे, अंधे को सब कुछ दरसाई।। बहिरौ सुनै, गूंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई। 'सूरदास' स्वामी करुणामय बार-बार बंदौ तिहिं पाई।।"
अपने आराध्य के प्रति भक्त सूरदास के हृदय में अगाध भक्ति-भावना है
उनकी ऐसी अनन्य भक्ति विनय-भक्ति की साधना में अन्यत्र भी प्रकट हुई है जहाँ उनका दैन्य उत्कर्ष को प्राप्त होता दृष्टिगोचर होता है। भगवान का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए वे वैष्णव सम्प्रदाय द्वारा निर्दिष्ट सातों भूमिकाओं-दीनता, मान-मर्षता, भय-दर्शन, आत्म-भर्त्सना, आश्वासन, मनोराज्य और विचारणा से गुजरते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का पूरा भरोसा है कि,
"जापर दीनानाथ ढरै। सोई कुलीन बड़ौ सुन्दर सोइ जा पर कृपा करौ। सूर पतित तरि जाय तनक में जो प्रभु नेक ढरै।।"
चूँकि भक्त-कवि सूरदास को भक्ति का साध्य रूप ही मान्य रहा है इसलिए वे भक्ति-प्राप्ति के लिए अपने आराध्य श्री कृष्ण के बाल रूप की ओर भी ध्यान देते हैं। इस दृष्टि से उनके कुछ उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य हैं
"कर पग गहि, अंगुठा मुख मेलत। प्रभु पौढे पालनँ अकेले, हरषि-हरषि अपनै रंग खेलत। सिव सोचत, बिधि बुद्धि विचारत, बरबाढ्यौ सागर-जल झेलत। बिडरि चले घन प्रलय जानि के,
दिगपति दिगदंतीनि सकेलत। मुनिमन भीत भए, भुव कंपित सेष सकुचि सहसौ फन पेलत। उन ब्रजबासिनि बात न जानी, समुझे सूर सकट पग ठेलत।।"
"चलत देखि जसुमति सुख पावै। ठुमकि-ठुमक पग धरनी रेंगत, जननी देखि दिखावै। देहरि लौँ चलि जात, बहुरि फिरि-फिरि इतहीं कौं आवै। गिरि-गिरिपरत, बनत नहिँ नाँघत सुर-मुनि सोच करावै।
कोटि ब्रह्मांड करत छिन भीतर, हरत बिलंब न लावै। ताकाँ लिए नंद की रानी, नाना खेल खिलावै।। तब जसुमति कर टेकि स्याम कौ, क्रम-क्रम करि उतरावै। सूरदास प्रभु देखि-देखि, सुर-नर-मुनि-बुद्धि भुलावै।।"
"हरि अपनँ आगन कछु गावत। तनक-तनक चरननि सौं नाचत, मनहिँ मनहिँ रिझावत। बाँह उठाई काजरी-धौरी, गैयनि टेरि बुलावत। कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत। माखन तनक आपनँ कर लै, तनक बदन मैं नावत। कबहुँक चितै प्रतिबिंब खंभ लैं, लौनी लिए खबावत। दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष आनंद बढ़ावत। सूरस्याम के बालचरित, नित नितही देखत भावत।"
निःसंदेह भक्त कवि सूर ने वात्सल्य के अन्तर्गत श्रीकृष्ण की बाल-सुलभ चेष्टाओं से लेकर उनकी प्रत्येक किशार-क्रीड़ा का अत्यंत ही स्वाभाविक और हृदयस्पर्शी वर्णन प्रस्तुत किया है। ___ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “वात्सल्य के क्षेत्र का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया है, उतना किसी और कवि ने नहीं, वे इसका कोना-कोना झाँक आए
प्रभु का नैकट्य प्राप्त करने के लिए भक्तकवि सूर प्रेमा-भक्ति का आश्रय लेते हैं
जहाँ उनके द्वारा अपने आराध्य श्रीकृष्ण के युवा रूप तथा सम्बद्ध लीलाओं का वर्णन प्रस्तुत किया गया है वहाँ भोली राधा की उपस्थिति शृंगार-प्रेम की भक्ति को उत्कर्ष देती दृष्टिगत होती है। इस दृष्टि से कुछेक उदाहरण यहाँ देखे जा सकते हैं
"खेलत हरि निकसे ब्रज खोरी। कटि कछनी पीतांबर बाँधे, हाथ लिये भौंरा, चक, डोरी। मोर-मुकुट, कुंडल स्रवननिबर, दसन दमक दामिनि-छवि छोरी। गए स्याम रबि-तनया कैंतट, अंग लसति चन्दन की खोरी। औचक ही देखी तहँ राधा, नैन विसाल भाल दिये रोरी। नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी। संग लरिकिनी चली इत आवति, दिन थोरी अति छवि तन-गोरी। सूरस्याम देखत ही रीझै, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी।।"
x "खेलत के मिस कुँवरि राधिका, नंद-महरि क आई (हो)। सकुच सहित मधुरे करिबोली, घर हौ कुँवर कन्हाई (हो)। सुनत स्याम कोकिल समबानी, निकसे अति अतुराई (हो)। माता सौं कछु करत कलह हे, किस डारी बिसराई (हो)। मैया री तू इनकौँ चीन्हति, बारम्बार बताई (हो)। जमुना-तीर काल्हि मैं भूल्यौ, बाँह पकरि लै आई (हो)। आवति इहाँ तोहिँ सकुचति है, मैं है साँह बुलाई (हो)। सूर स्याम ऐसे गुन-आगर, नागरि बहुत रिझाई (हो)।।"
"राधा नँद-नंदन अनुरागी।
सूरदास की भक्ति-भावना की विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।
भय चिंता हिरदै नहिँ एकौ, स्याम रंग-रस पागी। हरद चून रंग, पय पानी ज्यौँ, दुबिधा दुहुँ की भागी।। तन-मन-प्रान समर्पन कीन्हौ, अंग-अंग रति खागी। ब्रज-बनिता अवलोकन करि-करि, प्रेम-बिबस तनु त्यागी। सूरदास प्रभु सौं चित्त लाग्यौ, सोवत तँ मनु जागी।।" यहाँ राधा में भक्त कवि सूर की अन्तरात्मा का अन्तर्भाव पूर्णतया स्पष्ट है।
किन्तु राधा-कृष्ण का संयोग श्री कृष्ण के मथुरा प्रस्थान करते ही अचानक वियोग में परिणत होता दृष्टिगोचर होता है। यहाँ तक कि श्रीकृष्ण के वियोग में न केवल राधा और गोपियाँ व्यथित हैं अपितु वहाँ यमुना भी काली पड़ गयी है। अनवरत अपनी आँखों के बरसने के कारण गोपियों को वर्षा ऋतु का सदा ही रहना अनुभव हो रहा है बल्कि उनके नेत्रों के आगे बादल भी हारते दिखायी देते हैं। ऐसी विरहाग्नि में दग्ध होती राधा की दशा और भी हृदयद्रावक है।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि लौकिक प्रेम-वर्णन के माध्यम से भक्त कवि सूर ने स्वयं को अपने आराध्य से जोड़ने का ही प्रयत्न किया है जिसमें वे सफल कहे जा सकते हैं। .
'भ्रमरगीत' जो सूरसागर का महत्वपूर्ण प्रसंग है वहाँ भक्तकवि सूर ने अपनी भक्ति के दार्शनिक स्वरूप को उजागर किया है किन्तु वहाँ भी उनका उद्देश्य सगुणोपासना पर ही बल देना रहा है। इस दृष्टि से एक उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य है
"ऊधौ हमहिँ न जोग सिखैयै। जिहिँ उपदेस मिलें हरि हमकों, सो ब्रत नेम बतैयै। मुक्ति रही घर बैठि आपने, निर्गुन सुनि दुख पैयै। जिहिँ सिर केस कुसुम भरि गूंदै, कैसे भस्म चढ्यै। जानि-जानि सब मगन भइ है, आपुन आपु लखैयै। सूरदास-प्रभु-सुनहु नवौ निधि, बहुरि कि इहिँ ब्रज अइयै।।" यहाँ उद्धव के प्रति गोपियों के कथन के माध्यम से सगुणोपासना पर ही बल दिया गया है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि सूरदास एक सगुणोपासक भक्त कवि हैं। उनकी भक्ति पुष्टिमार्गीय होते हुए भी पुष्टि सम्प्रदाय के दार्शनिक प्रपंचों से दूर है। उनकी भक्ति उनके अन्त:करण से निःसृस्त उनकी आन्तरिक अनुभूति है। नवधा भक्ति के सारे ही रूप उनकी भक्ति में दृष्टिगत होते हैं।
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