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Hindi Bhasha Ka Itihas हिन्दी भाषा का स्वरूप-विकास दिखलायें या हिन्दी की उत्पत्ति पर प्रकाश डालें।

Hindi Bhasha Ka Itihas हिन्दी भाषा का स्वरूप-विकास दिखलायें या हिन्दी की उत्पत्ति पर प्रकाश डालें. Ans. It is an interesting but real fact that the term 'Hindi' is not used in any definite sense. In different contexts, it is used in different meanings, due to the misconception of not knowing, or deliberately not knowing, there are various types of illusions. Therefore, it is necessary to present a brief introduction to the meaning, meaning, and history of the term 'Hindi'.

Hindi Bhasha Ka Itihas

Hindi Bhasha Ka Itihas हिन्दी भाषा का स्वरूप-विकास दिखलायें या हिन्दी की उत्पत्ति पर प्रकाश डालें।

Ans. यह एक रोचक किंतु वास्तविक तथ्य है कि 'हिन्दी' पद का प्रयोग किसी एक नश्चित अर्थ में नहीं होता। अलग-अलग सन्दर्भो में इसका प्रयोग अलग-अलग अर्थों में होता है, जिसे न जानने, या जान-बुझकर न जानने का स्वांग करने के चलते तरह-तरह के भ्रमों की दृष्टि होती है। अत: 'हिन्दी' पद के अर्थ, अर्थान्तर और इतिहास का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करना आवश्यक है।

ऐतिहासिक दृष्टि से भाषा के अर्थ में 'हिन्दी' पद का प्रयोग तेरहवीं शताब्दी के पूर्व नहीं मलता। संस्कृत, प्राकृत या अपभ्रंश साहित्य में कहीं भी 'हिन्दी' पद का प्रयोग नहीं दिखाई देता। भाषा के अर्थ में प्राचीन तथा मध्यकालीन फारसी और अरबी साहित्य में 'जबाने हिन्दी' पद का प्रयोग सम्भवतः हिन्द की सभी भाषाओं, संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि के लिए मिलता है। तेरहवीं शताब्दी में प्रसिद्ध भारतीय फारसी कवि औफी 

(1228 ई0) ने सर्वप्रथम हिन्द की 'संभवत: मध्य देश की) देशी भाषा के लिए 'हिन्दवी' शब्द का प्रयोग किया। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में प्रसिद्ध फारसी कवि अमीर खुसरो ने (1253-1325 ई0) उत्तर भारत की देशी भाषा को 'हिन्दी' या 'हिन्दवी' की संज्ञा प्रदान की। उनकी प्रसिद्ध रचना खालिकबारी में 'हिन्दवी' शब्द तीस बार और 'हिन्दी' शब्द पाँच बार देशी भाषा के लिए प्रयुक्त हुआ है। 

खुसरो ने अपने समय की तेरह भाषाओं का उल्लेख किया है जिनमें 'अवधी' और 'देहलवी' और इसके इतराफ की जबान का नाम तो है, पर 'हिन्दी' या 'हिन्दबी' का उल्लेख नहीं है। इसका यह अर्थ है कि उस समय तक किसी विशिष्ट भाषा के लिए 'हिन्दी' या 'हिन्दवी' शब्द का प्रचलन नहीं हुआ था। पर जब वे अपने को 'हिन्दी' या हिन्दवी' का ज्ञाता और कवि कहते हैं तो या तो वे 'अवधी'

हिन्दी भाषा का स्वरूप-विकास दिखलायें या हिन्दी की उत्पत्ति पर प्रकाश डालें।

और 'देहलवी और इसके इतराफ की जबान' को सम्मिलित रूप से 'हिन्दी' कहते हैं या केवल 'देहलवी और इसके इतराफ की जवान को ही 'हिन्दी' मानते हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी के बिलकुल आरंभ में बन्दानवाज गेसूदराज ने दक्षिण में काव्य रचना आरंभ की, पर उन्होंने अपनी भाषा को, जो 'देहलवी और इसके इतराफ की जबान' (आज की खड़ी बोली, बाँगरू और पंजाबी का मिला जुला रूप) पर आधारित थी, कोई विशेष नाम नहीं दिया। पर इस परम्परा के प्रसिद्ध कवि शाह मीराँजी शमसुलउश्शाक ने 

(मृत्यु 1946 ई0) अपनी काव्यधारा को 'हिन्दी' कहा। इसके बाद इस काव्यधारा के अनेक कवियों, मुल्ला, वजही, शाह, बुरहानुद्दीन जानम बीजापुरी, जुनूनी, काजी महमूद, बहरी, बाकर, आगाह, मीरा याकूब, वलीउल्ला कादरी, शेख अशरफ आदि ने अपनी भाषा को 'हिन्दी' कहकर पुकारा। इस प्रकार 'दक्खिनी' कवियों ने खड़ी बोली पर आधारित अपनी काव्यभाषा के लिए 'हिन्दी' (हिन्दवी) संज्ञा को सुपरिचित बना दिया। पर उत्तर भारत में हिन्दी-हिन्दवी का प्रयोग तनिक व्यापक अर्थ में होता रहा। 1379 ई0 में मौलाना दाऊद ने चन्दायन

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की रचना 'अवधी' में की। यद्यपि उपलब्ध प्रतियों में स्वयं कवि द्वारा अपनी भाषा को किसी विशेष नाम से पुकारने का कोई प्रमाण नहीं मिलता, पर अब्दुर्कादिर बदायूँनी ने चन्दायन की भाषा को 'हिन्दवी' कहा था। मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने काव्यग्रन्थ पदमावत (1527-40 ई0) में अपनी भाषा को 'हिन्दवी' कहा है- 'तुर्की अरबी हिन्दवी भाषा जेती आहिं। जामें मारग प्रेम का सबै सराहै ताहि।' उल्लेखनीय है कि जायसी ने अपनी भाषा को 'अवधी' नहीं कहा है जबकि

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उस समय यह नाम प्रचलित था। अमीर खुसरो और जायसी की भाषा के आधार पर डॉ० धीरेन्द्र वर्मा का अनुमान है कि उस समय दिल्ली के आसपास से लेकर अवध तक के प्रान्त की देशी भाषा को 'हिन्दी' या 'हिन्दवी' नाम सामान्य रूप से दिया जाने लगा था। एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि प्रायः इस्लामी परम्परा से जुड़े मुसलमान कवि देशी भाषा के लिए 'हिन्दी' या 'हिन्दवी' पद का, जबकि भारतीय परम्परा से संबद्ध कवि देशी भाषा के लिए केवल 'भाषा' या 'भाखा' शब्द का प्रयोग करते थे। कबीरदास लिखते हैं- 'संसकिरत हे कूप जल, भाखा बहता नीर।' 

हिन्दी भाषा का स्वरूप-विकास दिखलायें

गोस्वामी तुलसीदास भी अपनी भाषा को 'भाषा' ही कहते हैं- 'का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच।' अकबर के दरबारी कवि अब्दुर्रहीम खानखाना प्रधानतः ब्रजभाषा और गौणतः अवधी के कवि थे, पर उन्हें उस समय 'हिन्दी' कवि ही कहा जाता था। इससे प्रतीत होता है कि उस समय 'भाषा/भाखा', 'हिन्दी' और 'हिन्दवी' समानार्थक शब्द थे। लगभग इसी समय दिल्ली के आसपास की भाषा के लिए 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग भी प्रचलित हुआ। बाबर ने अपने आत्मचरित 'तुजुकबाबरी' में भाषा के अर्थ में 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार मुगल काल में हिन्दी', 'हिन्दवी', 'भाषा' और 'हिन्दुस्तानी' शब्द पर्यायवाची थे। 

मुसलमान लेखक अधिकतर 'हिन्दी' और 'हिन्दवी' का हिन्दू कवि 'भाषा' का और यूरोपीय यात्री, पादरी आदि 'हिन्दुस्तानी' का प्रयोग करते थे। किसी हिन्दू द्वारा 'हिन्दवी' शब्द का प्रथम प्रयोग मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र राम सिंह के निजी सहायक के एक पत्र (अक्तूबर 1666 ई0) में मिलता है। प्रथम ब्रजभाषा व्याकरण के लेखक मिर्जा खाँ (1676 ई0) ने अपने 'तहफ्तुल हिन्द' में ब्रजभाषा को 'हिन्दी' कहा। 

शाह बरकत उल्लाह ने भी 'रिसाला अवारी के हिन्दी' में 'हिन्दी' शब्द का इस्तेमाल किया है। इस समय के आसपास शेख अब्दुल अंसारी (1664 ई0) और शेख महबूब आलम ने 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग किया। औरंगजेब के समकालीन सन्त प्राणनाथ के औरंगजेब के नाम लिखे पत्र की भाषा को उनके शिष्यों तथा समकालीनों ने 'हिन्दवी' कहा है। किन्तु स्वयं प्राणनाथ ने 

(1581-1694 ई0) 'हिन्दुस्तानी' शब्द का ही प्रयोग किया है। सूफी कवि नूर मुहम्मद ने अपनी रचना अनुराग बाँसुरी (1764 ई0) में अपनी काव्यभाषा (अवधी) को 'हिन्दी' की संज्ञा ही दी- 'कामयाब कह कौन जगावा। फिर हिंदी भाखै पर आवा। उधर शाहजहां-काल (1627-1657 ई0) में तारीख फरिश्ता और बादशाहनामा में 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग मिलता है। कुलजमस्वरूप (सन्त प्राणनाथ) 

हिन्दी की उत्पत्ति पर प्रकाश डालें।

के आदि सम्पादक केसोदास ने 1694 ई0 में किताबों के शीर्षकों में 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग किया था। इसी प्रकार लगभग तीन सौ वर्ष पुराने खड़ी बोली के पत्रों में 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग मिलता है। यह रोचक तथ्य है कि मध्ययुग में मुसलमानों ने 'हिन्दी-हिन्दवी' की तुलना में 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग बहुत कम किया है। अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुसलमान लेखक अधिकतर 'हिन्दी-हिन्दवी' शब्द का ही प्रयोग करते रहे। मीर का एक प्रसिद्ध शेर है

क्या जानूँ लोग कहते हैं किसको सरूरे कल्ब
आया नहीं है लफ्ज ये हिन्दी जबाँ के बीच। यद्यपि 'हिन्दी-हिन्दवी' में अरबी-फारसी शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग पहले ही आरंभ हो गया था, पर उसका 'उर्दू' नाम मीर के बाद ही अधिक प्रचलित हुआ। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भी अनेक मुसलमान लेखकों ने अपनी काव्यधारा को 'हिन्दी' या 'हिन्दवी' कहा। इनमें सैयद ईशा अल्ला खाँ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे फारसी में लिखित अपने प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ 'दरयाय लताफत' (1808 ई0) में 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग लगभग 40 बार करते हैं। 

डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार ईशा फारसी, अरबी आदि बाहरी भाषाओं के सन्दर्भ में 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग अधिकांशत: सामान्य अर्थ में 'मध्यदेश की भाषा' के लिए करते हैं। पर धीरे-धीरे मुसलमान लेखक अपनी काव्यधारा को अरबी-फारसी प्रभाव से अधिकाधिक युक्त करते गये और उसके लिए 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग छोड़ 'उर्दू' शब्द का प्रयोग करने लगे।

डॉ० माताबदल जायसवाल के सोलहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से अठारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण के बीच भारत में आये पादरियों और यूरोपीय यात्रियों-पादरी एक्वा बीबा (1582 ई0), जेरोम जेवियर (1598 ई0), केटिलियर (1694 ई0), हेमिल्टन (1716 ई0) आदि के बारे में बताया है कि उन्होंने 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग व्यापक रूप से हिन्दुस्तान की भाषा, सामान्य रूप से मध्य देश की भाषा और विशेष रूप से खड़ी बोली शैली के लिए किया है।

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सर्वप्रथम जॉन गिलक्राइस्ट ने 'हिन्दुस्तानी' शब्द को एक नया अर्थ देने का प्रयास किया तो संभवतः राजनीतिक उद्देश्य से भी प्रेरित था। गिलक्राइस्ट ने उत्तरी हिन्दुस्तान की प्रमुख भाषा के लिए सामान्य रूप से 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग किया, जिसे उन्होंने तीन शैलियों में विभक्त किया। दरबारी शैली (उर्दू) मध्यम शैली (वास्तविक

हिन्दुस्तानी) और ग्रामीण शैली (हिन्दवी)। किन्तु वास्तव में 'हिन्दुस्तानी' से उनका तात्पर्य उर्दू से ही था और फोर्ट विलियम कालेज के हिन्दुस्तानी विभाग में 'हिन्दुस्तानी' नाम से उर्दू ही पढ़ायी जाती थी। इस तरह 1800 ई0 के बाद गिलक्राइस्ट के प्रभाव से 'हिन्दुस्तानी' से उर्दू का अर्थ ही लिया जाने लगा। किन्तु जल्द ही ईसाई मिशनरियों को इस भूल का पता चल गया।

उन्होंने अपने अनुभव से जान लिया कि उत्तर भारत में व्यापक रूप से बोली जानेवाली भाषा 'हिन्दी' है, 'हिन्दुस्तानी' के वेश में उर्दू नहीं। अतः उन्होंने अपनी धर्मप्रचार सम्बन्धी पुस्तकें 'हिन्दी' में ही लिखीं। कम्पनी के कर्मचारियों ने भी धीरे-धीरे यह अनुभव किया कि हिन्दुस्तानी (अर्थात् उर्दू) नहीं बल्कि हिन्दी (हिन्दवी) ही उत्तरी हिन्दुस्तान की बहुप्रचलित भाषा है। 

1812 ई0 में कैप्टेन टेलर ने कॉलेज का वार्षिक विवरण प्रस्तुत करते समय 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग आधुनिक अर्थ में सम्भवतः प्रथम बार किया। तत्पश्चात 1824 ई0 में विलियम प्राइस ने अपने को सर्वप्रथम 'हिन्दी प्रोफेसर' लिखा और ब्रजभाषा, खड़ी बोली, हिन्दवी, हिन्दुई, ठेठ हिन्दी आदि नामों के स्थान पर 'हिन्दी' नाम को चुना। उन्होंने 'हिन्दी' और 'हिन्दुस्तानी' का अन्तर भी स्पष्ट किया। 

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इसके बाद, धीरे-धीरे, अरबी-फारसी मिश्रित भाषा के लिए 'हिन्दुस्तानी' नाम का प्रयोग कम होने लगा और वह अपने प्रकृत रूप 'उर्दू' में ही विलीन हो गयी। लगभग दो दशक बाद राजा शिवप्रसाद ने 'हिन्दी' को 'आम पसन्द' और 'खास पसंद' भाषा का रूप देने की कोशिश की। उनकी 'आम पसन्द' वाली भाषा तो 'हिन्दी' रही, पर 'खास पसन्द' वाली भाषा देवनागरी लिपि में उर्दू हो गया। वह वही 'हिन्दुस्तानी' थी जिसके प्रचारक गिलक्राइस्ट थे। राजा शिव प्रसाद की कोशिशों के बावजूद उनकी 'खास पसंद हिन्दी' तात्कालीन हिन्दी प्रेमियों को स्वीकार्य न हुई।

उनके ही समकालीन राजा लक्षमण सिंह ने अपनी 'शकुन्तला नाटक' (1863 ई0), रघुवंश (1877 ई0), मेघदूत (1881, 1883 ई0) आदि अनूदित रचनाओं में हिन्दी का ऐसा नमूना पेश किया जो सर्वग्राह्य हो गया। रघुवंश के गद्यानुवाद के प्राक्कथन में उन्होंने 'हिन्दी' और 'उर्दू' की अलग-अलग बोलियाँ घोषित करते हुए 'हिन्दी' को 'संस्कृत के पदों' से युक्त, 'बिना अरबी-फारसी शब्दों की सहायता लिए भी बोली जानेवाली हिन्दुओं की भाषा' कहा।

उनकी हिन्दी की इस परिभाषा से अँगरेज़ विद्वान फ्रेडरिक पिन्कॉट भी सहमत थे। उन्होंने राजा लक्षमण सिंह के शकुन्तला नाटक (1863 ई0) की भूमिका में. राजा साहब की 'हिन्दी' को ही वास्तविक हिन्दी के रूप में स्वीकार किया। इसके बाद 'हिन्दी' पद उस भाषा के लिए पूर्णतः स्वीकृत हो गया जो मूलतः खड़ी बोली पर आधारित है और जिसमें तद्भव शब्दों के साथ संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिक मात्रा में प्रयोग होते हुए भी बोलचाल में घुलमिल गये

विदेशी शब्दों का बहिष्कार नहीं किया जाता। भारतेन्दु और उनके युग के साहित्यकारों ने 'हिन्दी' को इसी अर्थ में ग्रहण किया। द्विवेदी युग में यही 'हिन्दी' अपने परिनिष्ठित रूप को प्राप्त हुई और परवर्ती कवियों तथा लेखकों ने इसी 'हिन्दी' का साहित्यिक भाषा के रूप में विकास किया।

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पर इसके साथ-साथ 'हिन्दी' पद का प्रयोग उसके व्यापक, पारिवारिक अर्थ में भी होता रहा। हिन्दी के प्रारंभिक साहित्येतिहासकारों ने, जिनमें रामचन्द्र शुक्ल प्रमुख हैं, 'हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत ब्रजभाषा, अवधी और खड़ीबोली में लिखित रचनाओं को ही नहीं, बल्कि राजस्थानी

और मैथिली की कृतियों को भी शामिल किया। दूसरी तरफ भाषा-वैज्ञानिकों ने जार्ज ग्रियर्सन के प्रभाव से कंवल ब्रजभाषा, खड़ी बोली, बाँगरू, कन्नौजी, बुंदेली, अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी को ही 'हिन्दी' की उपभाषाओं के रूप में स्वीकार किया। इनमें से प्रथम पाँच को 'पश्चिमी हिन्दी' के अन्तर्गत और शेष तीन को 'पूर्वी हिन्दी' के अन्तर्गत रखा गया। राजस्थान की मारबाड़ी, जयपुरी, मेवाती और मालवी को, 

उत्तर प्रदेश और बिहार की भोजपुरी तथा बिहार की मैथिली और मगही को, हिमाचल प्रदेश की क्योंथली, कुलूई और चम्बाली को, उत्तरप्रदेश की कुमायूँनी, गढ़वाली और जौनसारी को तथा उत्तरी बंगाल और सिक्किम की गोरखाती, नेपाली आदि को 'हिन्दी' से भिन्न माना गया। हिन्दी के प्रायः सभी भाषाविज्ञानी, 'भाषावैज्ञानिक' कसौटी पर, 'हिन्दी' का प्रसार पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली और उत्तरप्रदेश से लेकर पूर्व में इलाहाबाद, प्रतापगढ़ और 

फैजाबाद के जिले तक तथा उत्तर में नेपाल की तराई से लेकर दक्षिण में रायपुर, खण्डवा तक मानते हैं। पर 'व्यावहारिक' रूप से -राजस्थानी', 'पहाड़ी' और 'बिहारी' उपवर्ग की भाषाओं को भी 'हिन्दी' की उपभाषाएँ मानने का आग्रह किया जाता है। डॉ0 रामविलास शर्मा ने 'हिन्दी' को राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश की 'जातीय भाषा' और यहाँ की भाषाओं/बोलियों को 'हिन्दी' की उपभाषाएँ मानने का तर्क पेश किया है। भारतीय संविधान और उससे निर्देशित योजनाओं में भी इस क्षेत्र के निवासियों की 'मातृभाषा'

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हिन्दी मान ली गयी है। राजभाषा नियम 1976 (यथासंशोषित, 1987) में भाषा की दृष्टि से समस्त भारत को चार क्षेत्रों में बाँटते हुए 'क' क्षेत्र के अन्तर्गत बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली तथा अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह को रखा गया है और यह माना गया है कि यहाँ की भाषा 'हिन्दी' है। इस प्रकार 'हिन्दी' को लेकर एक विचित्र असंगतिपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी है। भाषावैज्ञानिकों के अनुसार 'हिन्दी' कोई एक भाषा न होकर एक भाषिक परिवार या संघ हैं। जिसमें ब्रजभाषा, खड़ीबोली, 

अवधी आदि उपभाषाएँ समान स्तर पर अवस्थित हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहासकार भी यही मानते हैं, पर जब वे आधुनिक साहित्य का इतिहास लिखने लगते हैं तब केवल खड़ीबोली पर आधारित आधुनिक परिनिष्ठित हिन्दी को ही 'हिन्दी' के रूप में स्वीकार करते हैं। दूसरी तरफ डॉ० रामविलास शर्मा आदि विद्वान खड़ी बोली पर आधारित आधुनिक परिनिष्ठित हिन्दी को जातीय भाषा हिन्दी और राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की भाषाओं को उसकी उपभाषाएँ मानने का आग्रह करते हैं।

जो हो, आज व्यावहारिक रूप में 'हिन्दी' का अर्थ खड़ीबोली पर आधारित आधुनिक परिनिष्ठित हिन्दी हो गया है और वह दिन भी बहुत दूर नहीं जब भोजपुरी, मैथिली, मगही, अवधी, ब्रज, राजस्थानी आदि भाषाएँ हिन्दी से भिन्न पर एक परिवार की भाषाओं के रूप में प्रतिष्ठित हो जाएँगी।

खड़ीबोली पर आधारित आधुनिक परिनिष्ठित हिन्दी को हिन्दी के रूप में मान्यता राजनीतिक कारणों से मिली है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान, आन्दोलन को व्यापक और प्रभावी बनाने के लिए इसी हिन्दी का उपयोग किया गया। गाँधी जी ने स्वाधीनता की लड़ाई में 'हिन्द' के महत्व को समझा और इसका व्यापक प्रचार हुआ। मुस्लिम नेताओं के विरोध के कारण गांधी जी को इसी भाषा को 'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' 

Hindi Ki Utpatti Pr Prakash Dalen हिन्दी की उत्पत्ति पर प्रकाश डालें।

और हिन्दुस्तानी' कहने के लिए बाध्य होना पड़ा। एक बार पुनः गिलक्राइस्ट की 'हिन्दुस्तानी' ने सिर उठाया पर भारत की आजादी और देश के बँटवारे ने उसके पुन:प्रचलन की संभावनाओं को समाप्त प्राय कर दिया। भारतीय संविधान में संघ की राजभाषा और उत्तर भारत की क्षेत्रीय भाषा के रूप में हिन्दी' नाम को ही स्वीकार किया गया।
पर संविधान ने 

हिन्दी' के स्वरूप को लेकर एक नयी उलझन भी पैदा कर दी। संविधान के 351 वें अनुच्छेद में, विशेष निर्देश के रूप में, यह कहा गया कि संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिन्दी का विकास इस रूप में करे कि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वं

की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके साथ ही हिन्दी की प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी और आठवीं अनसूची में विनिदिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त होने वाले रूपों, शैलियों और अभिव्यंजनाओं को आत्मसात् करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो, मुख्यतः संस्कृत और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्दों को ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित की जानी चाहिए।

इसके साथ ही संविधान की आठवीं अनुसूचि में भारत को चौदह भाषाओं में 'हिन्दी' को भी, संस्कृत और उर्दू के साथ, स्थान दिया गया। इससे एक बड़ी भारी गड़बड़ी पैदा हो गयी। संविधान ने, और उसके माध्यम से सारे देश ने, यह मान लिया कि उत्तर भारत का एक विशाल क्षेत्र 'हिन्दी-भाषी' है। प्रायः यह भी मान लिया गया कि 'हिन्दी' इस विशाल क्षेत्र की मातृभाषा है। उत्तर भारत के लोगों ने भी जनगणना में अपनी 'मातृभाषा' के रूप में 'हिन्दी' का ही नाम

Show the development and development of the Hindi language or throw light on the origin of Hindi.

अंकित कराया। इससे 'हिन्दीभाषियों' की संख्या तो बढ़ गयी और उसका राजनीतिक लाभ भी मिला, पर इस कारण हिन्दी का विरोध भी तीव्र हो गया। यह तथ्य बिलकुल ही भुला दिया गया कि 'हिन्दी' इस क्षेत्र के बहुत सीमित वर्ग की मातृभाषा है, भले ही वह इस क्षेत्र की साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा सम्पर्क भाषा हों संविधान ने हिन्दी को 'राजभाषा' और 'क्षेत्रीय भाषा' के रूप में अलग-अलग उल्लेख करके यह बोध पैदा किया कि ये दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं। क्षेत्रीय हिन्दी की अपनी एक विशेष 'प्रकृति' (जीनियस) है जिसमें बिना 'हस्तक्षेप' 

किये राजभाषा हिंदी 'हिन्दुस्तानी' और आठवीं अनुसूचि में विनिर्दिष्ट भाषाओं में प्रयुक्त होनेवाले रूपों, शैलियों और अभिव्यंजनाओं को तथा मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्दों को ग्रहण कर अपना भावी स्वरूप निर्मित करेगी। यह संवैधानिक निर्देश इतना अस्पष्ट है कि इससे केवल भ्रम पैदा होना था और वही हुआ भी। हिन्दी क्षेत्र के निवासियों ने इसे अव्यावहारिक और अस्पष्ट समझ कर कोई महत्व नहीं दिया जबकि हिन्दी विरोधियों ने इसे अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया

Hindi Bhasha Ka Itihas 

और आज भी कर रहे हैं। इसका थोड़ा आभास हमें प्रथम राजभाषा आयोग (1956) के प्रतिवेदन में भी मिलता है। इस प्रतिवेदन में भी मगनभाई देसाई की व्याख्यात्मक टिप्पणी संलग्न है जिसमें कहा गया है कि "अनुच्छेद-351 में परिभाषित 'संघीय हिन्दी' कोई बनावटी 'सरकारी बोली' या 'शब्दाडम्बर' न होकर हमारे सभी भाषाई वर्गों के सम्मिलित और संयुक्त प्रयास से विकसित एक सजीव और विकासमान भाषा होगी। स्पष्ट है कि यदि हम ऐसा 

राष्ट्रीय प्रयत्न करेंगे तो यह एक राष्ट्रीय अन्तर भाषा हिन्दी या हिन्दुस्तानी भी उत्पन्न होगी। यदि ऐसा हो सके तो देश के सब समूहों को मनसा यह अन्तर भाषा स्वीकार्य होगी। इसके बावजूद मगनभाई देसाई ने 'दो हिन्दियों' का प्रश्न उठाया है और अपना निष्कर्ष दिया है कि आठवीं अनुसूची में उल्लिखित "हिन्दी' 

Anuchched 334 Aur 351 Men अनुच्छेद-343 और 351 में 

उल्लिखित संघीय भाषा 'हिन्दी' नहीं हो सकती और न संघ की 'हिन्दी' भाषा ही आठवीं अनुसूची में उल्लिखित 'हिन्दी' हो सकता है। मगनभाई ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि 'उत्तर के लोगों ने यह धारणा फैलायी है कि जिस भाषा को संघीय भाषा माना गया है वह उनकी भाषा है। 

श्री देसाई ने अपने मत के समर्थन में श्री बाल गंगाधर
खेर और पं0 जवाहरलाल नेहरू के विचार भी उद्धृत किये हैं। श्री खेर ने कहा था कि "संविधान में जिस हिन्दी की परिकल्पना है वह धीरे-धीरे ही विकसित होगी, वह हिन्दी नहीं हो सकती जो उत्तर प्रदेश या बिहार या मध्य प्रदेश में प्रचलित है। ये सब राष्ट्रभाषा की रचना में बहुमूल्य योगदान करेंगी पर ये स्वयं राष्ट्रभाषा नहीं है।

पं0 जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था कि "हिन्दी को दो रूपों में देखना है। एक तो अन्य प्रादेशिक भाषाओं के ही समान प्रादेशिक भाषा के रूप में और दूसरा एक सार्वदेशिक सरकारी भाषा या दूसरी भाषा के रूप में। जून, 1950 में तत्कालीन लोक सभा के अध्यक्ष श्री गणेश वासुदेव मावलंकर ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये थे।
इस संबध में एक अहम सवाल यह पैदा होता है कि यह विशिष्ट 'हिन्दी', जो भारतीय संघ की राजभाषा बनेगी, कैसी होगी और इसका निर्माण कौन करेगा। भाषाओं के विकास का

 इतिहास इस बात का गवाह है कि किसी भाषा का कृत्रिम रूप से निर्माण नहीं किया जा सकता, उसका समकालीन परिस्थितियों और आवश्यकताओं के घात-प्रतिघात से विकास ही होता है। आधुनिक हिन्दी अठारहवीं शताब्दी से लेकर आज तक की परिस्थितियों की ही उपज है और विगत तीन शताब्दियों से इसके स्वरूप में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। तथाकथित 'हिन्दी क्षेत्र' में जो हिन्दी बोली जाती है उससे यह आधुनिक परिनिष्ठित 

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हिन्दी भिन्न है। यह कोई नयी बात नहीं है और संसार की समस्त विकसित भाषाओं के साथ यह बात लागू है। संविधान के अनुच्छेद-351के आधार पर जिस 'भावी हिन्दी' की बात कही जाती है, वह आधुनिक हिन्दी का ही विकसित रूप हो सकती है और यह कहने का कोई विशेष अर्थ नहीं है कि वह उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश की 'क्षेत्रीय हिन्दी' से भिन्न होगी। 

आधुनिक परिनिष्ठित हिन्दी आज भी अनेक शैलियों में लिखी जाती है और शब्दों के प्रयोग को लेकर उसमें कोई रूढ़िवादिता नहीं है। यहाँ तक कि शब्दों की वर्तनी और अनेक व्याकरणिक प्रयोगों में विकल्पों की छूट भी लेखन और भाषण में मान्य है। हिन्द क्षेत्र की भाषाएँ अपनी शब्द-सम्पदा, मुहावरों, कहावतों और अभिव्यंजनाओं से आधुनिक हिन्दी को निरन्तर समृद्ध करती रही हैं। 

अतः अखिल भारतीय भाषा के रूप में यदि हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं से भी प्रभाव ग्रहण करती है तो यह कोई चिन्ता की बात नहीं है। यह निश्चित है कि यह 'प्रभाव' स्वाभाविक रूप में, भाषा-सिद्धान्त के नियमों के रूप में ही आएगा, किसी आरोपित फारमूले के रूप में नहीं।

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Sagun Kavya Dhara Kya Hai | Virtuous poetry | सगुण काव्य-धारा.  Saguna means virtue, here virtue means form. We have already known that devotion, believing in the form, shape, incarnation of God, is called Saguna Bhakti . It is clear that in the Sagun Kavadhara, the pastimes of God in the form of God have been sung. It says - Bhakti Dravid Uppji, Laya Ramanand. Sagun Kavya Dhara Kya Hai | Virtuous poetry | सगुण काव्य-धारा Ans. सगुण का अर्थ है गुण सहित, यहाँ पर गुण का अर्थ है- रूप। यह हम जान ही चुके हैं कि ईश्वर के रूप, आकार,अवतार में विश्वास करने वाली भक्ति सगुण भक्ति कहलाती है। स्पष्ट है कि सगुण काव्यधारा में ईश्वर के साकार स्वरूप की लीलाओं का गायन हुआ है। कहते हैं - भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लाये रामानंद।'  अर्थात् सगुण भक्तिधारा या वैष्णव (विष्णु के अवतारों के प्रति) भक्ति दक्षिण भारत में प्रवाहित हुई। उत्तर भारत में इसे रामानंद लेकर आए। राम को विष्णु का अवतार मानकर उनकी उपासना का प्रारंभ किया। इसी प्रकार वल्लभाचार्य ने कृष्ण को विष्णु का अवतार मानकर उनकी उपासना का प्रारंभ किया। इ

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विद्यापति का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत करते हुए उनके काव्यगत वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालें। अथवा, विद्यापति का कवि-परिचय प्रस्तुत करें। उपर्युक्त पद में कवि विद्यापति द्वारा वसंत को एक राजा के रूप में उसकी पूरी साज-सज्जा के साथ प्रस्तुत किया गया है अर्थात् वासंतिक परिवंश पूरी तरह से चित्रित हुआ है। अपने आराध्य माधव की तुलना करने के लिए कवि उपमानस्वरूप दुर्लभ श्रीखंड यानी चंदन, चन्द्रमा, माणिक और स्वर्णकदली को समानता में उपस्थित करता है किन्तु सारे ही उपमान उसे दोषयुक्त प्रतीत होते हैं, यथा-'चंदन' सुगंधि से युक्त होकर भी काष्ठ है 'चन्द्रमा' जगत को प्रकाशित करता हुआ भी एक पक्ष तक सीमित रहता है, माणिक' कीमती पत्थर होकर भी अन्ततः पत्थर है तथा स्वर्ण-कदली लज्जावश हीनभाव के वशीभूत होकर यथास्थान गड़ी रहती है ऐसे में कवि को दोषयुक्त उपमानों से अपने आराध्य की तुलना करना कहीं से भी उचित नहीं लगता है अत: माधव जैसे सज्जन से ही नेह जोड़ना कवि को उचित जान पड़ता है। इस दृष्टि से अग्रांकित पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं विद्यापति का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत करते हुए उनके

सूरदास की भक्ति-भावना के स्वरूप की विवेचना कीजिए। अथवा, सूरदास की भक्ति-भावना की विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।

सूरदास की भक्ति-भावना के स्वरूप की विवेचना कीजिए। अथवा, सूरदास की भक्ति-भावना की विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।  उत्तर-'भक्ति शब्द की निर्मिति में 'भज् सेवायाम' धातु में 'क्तिन' प्रत्यय का योग मान्य है जिससे भगवान का सेवा-प्रकार का अर्थ-ग्रहण किया जाता है जिसके लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल श्रद्धा और प्रेम का योग अनिवार्य मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि भक्ति को प्राप्त होकर समस्त लौकिक बन्धनों एवं भौतिक जीवन से ऊपर उठ जाता है जहाँ उसे अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है। भक्ति के लक्षण की ओर संकेत करते हुए भागवतंकार कहते हैं "स वै पुंसां परोधर्मो यतोभक्ति रमोक्षजे। अहेतुक्य प्रतिहताययाऽऽत्मा संप्तसीदति।।" उपर्युक्त श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति व्यक्ति में उस भक्ति के उत्पन्न होने की अपेक्षा की गई है जिसकी निरन्तरता व्यक्ति को कामनाओं से ऊपर पहुँचाकर कृतकृत्य करती है। _ हिन्दी साहित्येतिहास में भक्तिकालीन कवि सूरदास कृष्णभक्त कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वोच्च पद पर आसनस्थ अपनी युग-निरपेक्ष चिरन्तन काव्य-सर्जना की दृष्टि से अद्वितीय कवि हैं जिनके द्वारा प