Prem Ki Peer Ka Kavi Ghananand प्रेम की पीर का कवि घनानन्द. Ans. Ghananand's poem of exclusive love, and equally as much of his opposite side, Mano-Bhoomi's poem, despite being in the ritual realm, also encroaches upon it, giving evidence of its generosity. Ghananand has been considered by A. Shukla as 'Sakshat Ras Murthy', 'Dheer-Gambhir Pathik of Prem Marga' and
Prem Ki Peer Ka Kavi Ghananand प्रेम की पीर का कवि घनानन्द
Ans. अनन्य प्रेम की, एवं उसके विप्रलंभ पक्ष की उतनी ही संजीदा मनोभूमि की घनानन्द की कविता रीतिकालीन दायरे में होने के बावजूद उसका अतिक्रमण भी करती है, अपने वैशिष्ट्य का साक्ष्य देती है। घनानन्द को आ० शुक्ल ने 'साक्षात् रस मूर्ति', 'प्रेम मार्ग का धीर-गम्भीर पथिक' तथा 'जबाँदानी का दावा करने वाला' ऐसा कवि माना
है, रीति-काव्य में जिसकी मिसाल नहीं है। 'सुजान' घनानन्द के मन में ही नहीं, हर एक छन्द में बसी है, और अन्ततः घनानन्द का उसके प्रति प्रेम लौकिक सीमाएँ लाँघकर उस दिव्य भूमि पर भी पहुँचा है, जहाँ प्रेमी-प्रियतम का एकात्म है- एक के अलावा दूसरा है ही नहीं। जहाँ अहंकार, भोग सब भष्म होकर प्रेम को
और भी उदात्त बना देते हैं। प्रेम की पीर का ऐसा दुर्लभ प्रकाशन कि सारी विकलता मन के भीतर ही है, बाहर नहीं, विरह ही कहा जायेगा। सुजान के विरह में घनानन्द ही ऐसी मनोहारी विरोधाभासी उक्ति कह सकते हैं- "उजरनि बसी है, हमारी अँखियान देखौ" अर्थात् मेरी आँखों में उजड़ना ही बसा हुआ है-छूछी-खोखली है वे।
एक-एक कवित्त, उनका एक-एक सवैया, स्वानुभूति प्रेरित है। कविता अपनी पूरी ऊँचाई में घनानन्द के विरह-विदग्ध हृदय से फूटी है।
Uttar Chhayavad, Nakelvad Ya Pradyvad, Prayogvad | 👉 उत्तर छायावाद, नकेनवाद या प्रपद्यवाद,
Comments