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Uttar Chhayavad, Nakelvad Ya Pradyvad, Prayogvad | उत्तर छायावाद, नकेनवाद या प्रपद्यवाद, प्रयोगवाद

Uttar Chhayavad, Nakelvad Ya Pradyvad, Prayogvad |  उत्तर छायावाद, नकेनवाद या प्रपद्यवाद, प्रयोगवाद. The post-cinematographic poem under which Bachchan, Narendra Sharma, Anchal Bhagwati Charan Verma's poem is contributed, has been critically described as a poetry of depressive mood.

उत्तर छायावाद, नकेनवाद या प्रपद्यवाद, प्रयोगवाद

Uttar Chhayavad, Nakelvad Ya Pradyvad, Prayogvad | उत्तर छायावाद, नकेनवाद या प्रपद्यवाद, प्रयोगवाद

Ans. In 1843, a collection called 'Tar Saptak' came out of such compositions, which claimed to be of new use. Therefore, these poets came to be called experimentalists. The editor of 'Tar Saptak' was agnostic. Shortly after the rise of experimentalism, three poets from Bihar (Nalin Vilochan Sharma, Keshari Kumar, and Naresh) put forth ten sutras to explain experimentalism.

Ans. In 1943, 'Tar Saptak' edited by Agnayya was published. Seven poets were compiled in it. Most of these were progressive. The disillusionment found in the poems of Agyeya compiled in 'Tar Saptak' is the basis of experimental poetry in Hindi. Anaya called the poets compiled in the Tara-speak the 'explorers of the paths' and also said that these poets are experimenting.

Uttar Chhayavad उत्तरछायावाद

Ans. उत्तर-छायावादी कविता जिसके अन्तर्गत बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, अंचल भगवती चरण वर्मा की कविता का योगदान है, समीक्षकों द्वारा ह्रासशील मनोभूमि की कविता के रूप में विवेचित हुई है। सन् 1934-35 ई० के आसपास के विषम और उग्र होते हुये युग-सन्दर्भो के बरक्स युवा-मानस के मोहभंग की उपज के रूप में भी उसे देखा गया है। आत्मग्रस्तता, अवसाद, हताशा, भाग्यवाद, अकेलापन 

उनके मुख्य मनोभाव हैं। “अल्पमत इच्छा यहाँ बन्दी बनी मेरी पड़ी है। विश्व क्रीड़ास्थल नहीं रे, विश्व कारागार मेरा", यह 1934-35 के बच्चन का ही आर्तनाद नहीं, उस समय के युवा-मन का आर्तनाद भी है। इसी नाते युवा वर्ग में उत्तर-छायावादी कविता लोकप्रिय भी हुई। छायावादी कविता को ये कवि धरती पर लाए, उसे धरती के व्यक्ति की जय-पराजय, दुख-अवसाद से जोड़ा, 

उसे एक कृत्रिम भाषा से मुक्त कर बोलचाल की सजीव भाषा से जोड़ा। इन कवियों ने अपनी दुर्बलताओं को, अपने मन के क्षय को स्वीकार किया, कुछ भी छिपाया नहीं। "मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता। शत्रु मेरा बन रहा है, छल-रहित व्यवहार मेरा" - यही नहीं, इन कवियों में आत्मा-लोचन की प्रवृत्ति भी है, निजता से उबरकर 

बाहरी जीवन-यथार्थ से जुड़ने की आकांक्षा भी। समग्रतः आत्मग्रस्त, क्षयी मनोभावों की प्रगाढ़ता के बावजूद उत्तर-छायावादी कविता में अनुभूति की सच्चाई है, अभिव्यक्ति की सहजता है, भाषा का प्रभावी विवरण निखरा रूप है। इस कविता में छद्म नहीं है। अपनी आत्मग्रस्तता में भी यह ईमानदार मन की अभिव्यक्ति है।

Nakelvad Ya Pradyvad नकेनवाद या प्रपद्यवाद

Ans. सन् 1843 में 'तार सप्तक' नाम से एक संग्रह ऐसी रचनाओं का आया, जिनमें नए प्रयोग करने का दावा किया गया था। इसलिए इन कवियों को प्रयोगवादी कहा जाने लगा। 'तार सप्तक' के संपादक थे अज्ञेय। प्रयोगवाद के उदय के कुछ समय बाद बिहार के तीन कवियों (नलिन विलोचन शर्मा, केशरी कुमार तथा नरेश) ने मिलकर प्रयोगवाद को स्पष्ट करने के लिए दस सूत्र सामने रखे। इस 'वाद' को 

उन्होंने 'प्रपद्यवाद' नाम दिया। प्रपद्यवाद उन कवियों के नाम के प्रथमाक्षरों से 'नकेनवाद' भी कहलाता है। सूत्रों का सार यह है कि प्रपद्यवाद न केवल शास्त्र या दल-निर्धारित नियमों को, अपितु महान पूर्ववर्तियो की परिपाटियों को भी निष्प्राण मानता है।

उसमें अपना अनुकरण भी वर्जित है। प्रपद्यवाद की दृक्वाक्यपदीप (Verbivocovisual) प्रणाली प्रयोगवाद की तिरछी-टेढ़ी लकीर प्रणाली से अलग है। प्रपद्यवाद प्रयोग को साध्य मानता है अर्थात् वह प्रयोगवाद ही है।

Prayogvad प्रयोगवाद

Ans. 1943 ई० में अज्ञेय द्वारा संपादित 'तार सप्तक' प्रकाशित हुआ। इसमें सात कवि संकलित थे। इनमें से अधिकांश प्रगतिवादी थे। 'तार सप्तक' में संकलित अज्ञेय की कविताओं में पाया जानेवाला मोहभंग हिन्दी में प्रयोगवादी कविता का आधार है। अज्ञेय ने तार-सप्तक में संकलित कवियों को 'राहों के अन्वेषी' कहा था और यह भी कहा था कि ये कवि प्रयोग कर रहे हैं। 

आलोचकों ने अज्ञेय के 'प्रयोग' शब्द को पकड़कर मोहभंग की उभरती हुई इस काव्य-प्रवृत्ति को प्रयोगवाद की संज्ञा दी। इसमें अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, लक्ष्मीकांत वर्मा आदि कवियों को परिगणित किया जाता है। इन कवियों की मानसिकता की पृष्ठभूमि में द्वितीय विश्वयुद्ध के अभूतपूर्व नरसंहार से उत्पन्न सभी प्रकार के आदर्शों से मोहभंग का बोध है।


आदर्श के स्थान पर यह काव्यधारा यथार्थ में निहित व्यंग्य और विद्रूप को अधिक प्रकट करती है। प्रयोगवाद की काव्यशैली में कोष्ठकों, उपवाक्यों का प्रयोग खुलकर किया जाता है। ये कवि किसी बनी बनाई लीक पर चलने के बजाए संवेदना और शिल्प के क्षेत्र में प्रयोग करने में अधिक विश्वास करते हैं।

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