Kshama shobhti us bhujang ko jiske paas garal ho. क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो. यह पंक्ति राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर रचित कुरुक्षेत्र की है। जो अपनी सहजता और विशिष्टता के कारण सूक्ति बन गयी है। इसका साधारण अर्थ है कि यदि विषधर साँप किसी को न काटे तो बड़ी बात है।
Kshama shobhti us bhujang ko jiske paas garal ho. क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
क्योंकि उसके काटने से किसी की प्राण हानि हो सकती है। लेकिन जिस साँप के पास विष ही नहीं हो उसके काटने न काटने से कोई अन्तर नहीं पड़ता।
अब यदि भुजंग अर्थात् साँप को मनुष्य समझकर विषधर सर्प को समर्थ या शक्तिशाली मनुष्य के रूप में अनुभव करें तो अभिप्राय होगा कि जो व्यक्ति किसी को दण्ड देने या हानि पहुँचाने की ताकत रखता है वह यदि किसी को क्षमा कर दे तो इसे उसकी कृपा माननी चाहिए।
इसके विपरीत जो किसी से बदला लेने या हानि पहुँचाने या दण्ड देने में समर्थ नहीं है अर्थात् कमजोर व्यक्ति है, वह यदि किसी के दण्डनीय अपराध को माफ ही कर दे तो उससे क्या ? उसकी क्षमा का कोई मूल्य या महत्व नहीं होता।
यह पंक्तियाँ रामधारी सिंह 'दिनकर' की प्रसिद्ध कविता "विनय" से ली गई हैं। पूरी कविता इस प्रकार है:
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।
उसको क्या जो दन्तहीन विषहीन विनीत सरल हो॥
तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुकुल शिरोमणि आए।
धृतराष्ट्र सुनो व्याध न कुत्सित आचरन पर पछताए॥
धर्मराज ने दी आज्ञा करुण ह्रदय से बुलवाया।
भीष्म द्रोण सब सभा छोड़कर आगे बढ़ने पाये॥
कौरव कुमति रही वर रामायण रण पथ अंधा।
सिंहासन पर बैठे रण बीच पांडव थे खड़े हुए॥
उठो वीर कोशल पितु धर्मराज सहमे न रहें।
हम भी सन्तान सव्यसाची आज्ञा तुमको देत हैं॥
तुमने इस पर देश छीना अस्त्र छोड़ कर,
व्रत लौं से जो यम की प्रतिज्ञा भूल गए॥
परम धर्ममय हैं हम लौं धीरज धरते हैं।
धीरजधर धीरजधर विजयी भवो अभिलाषित बनते हैं॥
इसीलिए हे अर्जुन आज्ञा करो समय को शीघ्र,
हे कर्ण सूत सुत सखे सिंहासन देना कर्तव्य॥
विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न प्रीत॥
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