Parahit saris dharam nahi bhai Muhavare ka Arth. परहित सरिस धर्म नहिं भाई' मुहावरे का अर्थ | उक्त कथन गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरित मानस' से संकलित है।
'धर्म शब्द जितना व्यापक है, उतना ही उसका प्रयोग मनमाने ढंग से किया जाता है, अथवा यह कहिए कि उसके अर्थ मनमाने ढंग से किए जाते हैं। राजनीति प्रधान आधुनिक युग में तो वह प्रायः अवज्ञा का विषय ही बन गया है तथा धर्म के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ना उक फैशन की चीज समझी जाती है।
Parahit saris dharam nahi bhai Muhavare ka Arth. परहित सरिस धर्म नहिं भाई' मुहावरे का अर्थ |
धर्म के बारे में दो बातें स्पष्ट रूप से समझ ली जानी चाहिए, वह अंग्रेजी शब्द Religion का पर्यायवाची नहीं है। अतः धर्म, मजहब, मिल्लत या पंथ सम्प्रदाय आदि से सर्वथा भिन्न अर्थ का द्योतक है। दूसरी बात यह है कि धर्म के लक्षणों में परमात्मा की चर्चा कहीं नहीं की गई है।
धर्म एक ऐसा वेद विहित कार्य है, जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस की सिद्धि होती है, जिससे लौकिक समृद्धि और पारलौकिक कल्याण की प्राप्ति होती है।
धर्म का महत्त्व व्यक्ति और समष्टि दोनों ही दृष्टियों से माना गया है, धर्म की व्याख्या करते समय आचार्यों ने व्यक्ति के सम्मुख सामाजिक संदर्भ को सदैव रखा है अर्थात् धर्म का अभिप्रेय कर्त्तव्य है, अधिकार नहीं। यम और नियम धर्म के आवश्यक अंग हैं
तथा धर्म के प्रत्येक भेद-वर्ण, वर्ण-धर्म, आश्रम धर्म, वर्णाश्रम धर्म, गौण धर्म तथा नैमित्तिक धर्म के संदर्भ में केवल कर्तव्यों की चर्चा की गई है, धर्म व्यक्ति के अधिकारों की बात नहीं करता है, वह समाज को देने की बात करता है, समाज से लेने की बात नहीं करता है। भारत के आर्ष ऋषियों ने भारतीय धर्म साधना का विधान समाज सेवा की भाव भूमि पर किया है।
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