Vidyapati's poetic introduction विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी कवि' युक्तियुक्त विवेचन कीजिए। अथवा, विद्यापति का काव्यगत परिचय दीजिए।
प्रश्न-5. 'विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी कवि' युक्तियुक्त विवेचन कीजिए। अथवा, विद्यापति का काव्यगत परिचय दीजिए। अथवा, विद्यापति एक ही साथ श्रृंगारी और भक्त कवि दोनों हैं: इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-महाकवि विद्यापति जीवन, प्रेम और सौन्दर्य के अमर गायक महाकवि होने के साथ ही श्रृंगारी, भक्त और जनकवि तीनों हैं। अपनी पदावली के अन्तर्गत एक ओर अपने पदों में वे राधा-कृष्ण के लीलागान में रमते दिखायी देते हैं वहीं दूसरी ओर केलि-क्रीड़ाओं के वर्णन से ऊब होते ही माधव हम परिणाम निरासा' कहते हुए
Vidyapati's poetic introduction
भक्तिपरक रचनाओं के सृजन की ओर उन्मुख होते दिखायी देते हैं, तत्पश्चात वे कभी गंगा की स्तुति करते हैं तो कभी शिव की स्तुति, कभी 'जय जय भैरवी असुर भयाउनि पशुपति भामिनी माया' कहते हुए शक्ति की उपासना करते दिखायी देते हैं तो कभी वे वैष्णव भजन गाते हैं। किन्तु वे मूलतः शैव थे। जैसी कि उनकी स्वीकारोक्ति है
आन चानजन हरि कमलासन सभे परि हरि हमें देवा।
भक्त बछल प्रभु बान महेसर जानि कएल तुअ सेवा ।।" विद्यापति अकेले ऐसे कवि हैं जिन्हें यदि शृंगारी कवि मानकर चला जाय तो भक्ति चीखने लगती है और केवल भक्त कवि मानकर चला जाय तो उनका शृंगार मचलने लगता है। ऐसे में एक पाठक के लिए यह विवशता होती है कि वह उन्हें दोनों ही मानकर चले।
जैसा कि सुधी समीक्षक डॉ० कामेश्वर शर्मा का मानना है कि, "जब उन्हें भक्त और रहस्यवादी कवि सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है तो स्थूल शृंगार अपना अधिकार प्रदर्शित करने को मचल उठता है, और जब उन्हें शृंगारिक कवि सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है तो भक्ति चीख उठती है- जैसे कि उसका कलेजा निकाला जा रहा हो।''
नि:संदेह विद्यापति एक कवि के रूप में सौन्दर्याग्रही अधिक रहे हैं तभी तो राधा-कृष्ण को लौकिक नायक-नायिका के रूप में स्वीकार करते हुए शृंगार के रस राजत्व-स्थापन की दिशा में अग्रसरित होते हैं और सफल होते हैं। यद्यपि उन्हें 'अभिनव जयदेव' की उपाधि प्राप्त होती है। किन्तु यदि कहा जाय तो सुधी समीक्षक
विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी कवि' युक्तियुक्त विवेचन कीजिए। अथवा, विद्यापति का काव्यगत परिचय दीजिए।
डाँ० कामेश्वर शर्मा के शब्दों में "उनकी राधा न तो जयदेव की है, और न सूर की। वह सर से पैर तक मौलिक है- विद्यापति की अपनी कृति।"
यह सही है कि विद्यापति एक सौन्दर्याग्रही कवि हैं और उनका सौन्दर्य सदैव नवीनता लिये दिखायी देने वाला है जिसकी पुष्टि कवि की अग्रांकित पंक्ति से होती है
'तिले-तिले नूतन होय।' कवि के जिस सौन्दर्य का प्रसार राधा कृष्ण विषयक पदों में होता हुआ दिखायी देता है वह सदैव नवीन दिखायी देता है और सात्विक ज्योति से युक्त है। इस दृष्टि से कवि की अग्रांकित पक्तियाँ द्रष्टव्य हैं
"सखि हे, कि पूछसि अनुभव मोय । सेह पिरीत अनुराग बखानइते तिले-तिले नूतन होय ।। जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल । सेह मधु बोल स्रबनहि सूनत श्रुति पथ परस न गेल । कतमधु जामिनी रभसे गमाओल न बूझल कैसन केलि। लाख लाख जुग हमे हिअ राखल तइओ हिय जरनि न गेल ।
कत विदग्ध जन रसअनुमोद अनुभव काहुं न पेख ।
विद्यापति कह प्राण जुड़ाइते लाख न मिलन एक ।।" एक शृंगारी कवि के रूप में विद्यापति को राधा-कृष्ण के केलि-विलास का ललित वर्णन अधिक जाँचता है। सच कहा जाय तो वही उन्हें इष्ट भी था। इस क्रम में वे शृंगार के अन्तर्गत न केवल नायक-नायिका के रूप-सौन्दर्य का अंकन करते हैं अपितु शृंगार के दोनों ही पक्षों-संयोग
Comments