Kabir das ke Dohe, Kabir Ke Dohe with meaning, Kabir ke Dohe in Hindi, कबीर दास के दोहे. कबीर एक क्रान्तिकारी समाज-सुधारक कवि हैं। उनकी प्रासंगिकता आज भी है। उनकी काव्य-साधना के दो पक्ष हैं - प्रथम, सामाजिक और धार्मिक प्रवृत्तियों पर चिन्तन और उसकी औपचारिकता तथा रूढ़िवादिता पर प्रहार। द्वितीय साधना के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करना।
इसके लिए वे योग, ज्ञान और प्रेम तीनों मार्गों का सहारा लेते हैं। लेकिन, प्रधानता प्रेम मार्ग की है। हमारी पाठ्य पुस्तक में संकलित प्रथम पद उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों का द्योतक है और दूसरा पद धार्मिक क्षेत्र की रूढिवादिता तथा हिन्द-मस्लिम संघर्ष पर प्रहार करने की चेतना से सम्बन्धित।
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साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना" - कबीर ने यहाँ किस सच और झूठ की बात कही है?
कबीर आत्मज्ञान को ईश्वर प्राप्ति का सही मार्ग और परम्परागत धर्म-कर्म पूजा-पाठ को गलत मानते हैं। लेकिन लोग उलटी राह पर चलने के अभ्यासी तथा उसी के विश्वासी हैं। कबीर का सच आत्मज्ञान है और झूठ लोकाचार है। वे इसी सच बात को कहते हैं तो लोग उन्हें
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Sant Kabir Ke Dohe |
मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत |
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ||
अर्थ : भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ।
मरने के बाद भी उठकर मेरे पीछे लग पड़ा, ऐसा यह मेरा मन बालक की तरह है।
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Kabir-Saheb-Ke-Dohe |
शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल |
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ||
अर्थ : गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है।
उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता।
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kabir-ke-dohe-in-hindi |
जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय |
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ||
अर्थ :- जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो।
मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर-अमर हो जाता है।
शरीर रहते-रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना
- विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं।
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Kabir-ke-dohe |
मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वास |
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस ||
अर्थ : मन को मृतक (शांत) देखकर यह विश्वास न करो कि वह अब धोखा नहीं देगा। असावधान होने पर वह फिर से चंचल हो सकता है इसलिए विवेकी संत मन में तब तक भय रखते हैं, जब तक शरीर में सांस चलती है।
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Kabir-Ke-Dohe-with-meaning |
जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय |
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय ||
अर्थ : जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता।
इसलिए शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रूपी मैदान में विराजना चाहिए।
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kabir-das-ke-dohe-in-hindi |
अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार |
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार ||
अर्थ : आज भी तेरा संकट मिट सकता है यदि संसार से हार मानकर निरभिमानी हो जा।
तुम्हारे अंधकाररूपी घर में को काम, क्रोधा आदि का झगड़ा हो
रहा है, उसे ज्ञान की अग्नि से जला डालो।
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kabir-das-dohe |
सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार |
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीं विकार ||
अर्थ : सत्संग सूप के ही समान है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है।
तुम भी गुरु से ज्ञान लो, जिससे बुराइयां बाहर हो जाएंगी।
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Kabir-ji-ke-dohe |
मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ |
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ||
अर्थ : संसार - शरीर में जो मैं - मेरापन की अहंता - ममता हो रही है -
ज्ञान की आग बत्ती हाथ में लेकर इस घर को जला डालो।
अपना अहंकार - घर को जला डालता है।
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kabir-das-ji-ke-dohe |
कबीर मिरतक देखकर, मति धरो विश्वास |
कबहुँ जागै भूत है करे पिड़का नाश ||
अर्थ : ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो।
अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा
और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा।
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Kabir-Das-Doha
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भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय |
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ||
अर्थ : जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे संत भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त - अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी लाख योनियों के बाज़ार में बिकने जा रहे हैं।
क्रान्तिकारी कवि कबीर एक निडर व्यक्ति हैं। अपनी आस्था के बल पर वे किसी भी व्यक्ति की आलोचना करने की शक्ति रखते हैं। प्रथम पद में कबीर ने संसार के पागलपन का वर्णन किया है। इस वर्णन के माध्यम से उन्होंने नकली साधकों, आत्मज्ञान से रहित गरुओं और नाम-भेद को लेकर
आपस में मार-काट करनेवाले हिन्दुओं-मुसलमानों की कटु आलोचना की है। वे कहते हैं संतो ! देखो यह संसार बौड़ाया हुआ है अर्थात् पागल और उन्मत्त है। यह पागलपन मूढ़ता और ढोंग से उत्पन्न है, लाभ-लोभ से प्रेरित है। कबीर जब ऐसे लोगों की वास्तविकता समाज को बतलाते हैं
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अर्थात् सच्ची बात कहते हैं तो लोग उसे मारने दौड़ते हैं जबकि शयोग्य और नकली साधकों की झठी बातों पर वे विश्वास करते हैं। कबीर कहते हैं कि मैंने ऐसे लोगों को देखा है। ये धार्मिक नियमों का पालन करते हैं, धर्म-कर्म की औपचारिक विधियों का सम्पादन करते हैं।
प्रतिदिन प्रात:काल ही स्नान कर अपने को पवित्र और धार्मिक मान लेते हैं। लेकिन ये ऊपरी विधि-विधान तक ही सीमित हैं। इन्हें कोई ज्ञान नहीं है। तभी तो ये आत्मा को मारकर यानी आत्मा की आवाज अनसुनी कर पत्थर की पूजा करते हैं यानी ज्ञान रहित होने के कारण पत्थर की मूर्ति को ईश्वर मानकर पूजा करते हैं।
इन्हें ज्ञात ही नहीं है कि पत्थर भगवान नहीं होता है। कबीर मूर्तिपूजक हिन्दुओं पर प्रहार कर शीघ्र मुसलमानों की ओर मुड़कर उन पर निशाना साधते हैं। वे कहते हैं कि मैंने अनेक पीर और औलिया अर्थात् मुसलमान सिद्धों और ज्ञानियों को देखा है जो कुरान आदि धर्मग्रंथ पढ़कर अपने को ज्ञानी और धर्मगुरु घोषित कर चुके हैं।
Kabir das ke Dohe, Kabir Ke Dohe with meaning
ये लोगों को अपने शिष्य बनाते हैं और उन्हें मुक्ति की युक्ति बतलाते हैं। लेकिन इनका ज्ञान भी वैसा ही है अर्थात् किताबी है। जो आचरण और मन में नहीं उतरा है। कबीर फिर हिन्दुओं की ओर मुड़ जाते हैं। वे कहते हैं कि ये हिन्दू साधक आसन लगाकर बैठते तो हैं लेकिन उनमें दंभ भरा हुआ है।
ये इस गुमान में भूले हैं कि उनसे बड़ा साधक और ज्ञानी कोई नहीं है। ये पीपल तथा पत्थर पूजते हैं अर्थात् वृक्षों और मूर्तियों की पूजा करते हैं। ये अनेक तीर्थों की यात्रा कर आते हैं और इस गर्व से भर जाते हैं कि मैंने पूजा-पाठ किया है, तीर्थयात्रा की है अतः असली ज्ञानी हूँ, धार्मिक हूँ।
ऐसे साधक आम लोगों से अपने को अलग बताने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के तिलक लगाते हैं, माला पहनते हैं। कोई विशेष पहचान-चिह्न धारण कर अपनी साम्प्रदायिक पहचान प्रकट करते हैं या विशेष ढंग की टोपी पहन कर अपनी विशेषता घोषित करते हैं।
Kabir Ke Dohe with meaning, कबीर दास के दोहे
आज की भाषा में कहें तो भिन्न-भिन्न प्रकार के साधु टोपी, माला, तिलक और पहचान-चिह्न का साइनबोर्ड शरीर पर लगाकर अपने ज्ञान, अपनी साधना और अपनी साम्प्रदायिक पहचान का विज्ञापन करते चलते हैं। इतना ही नहीं ये लोगों पर प्रभाव जमाने के लिए साखी तथा सबद यानी पद भाव-विभोर होकर झूम-झूम कर गाते हैं
और गाते-गाते बेसुध हो जाते हैं। कबीर की दृष्टि में ये सब उपाय बाहरी हैं, दिखावटी हैं। सत्यता यही है कि इन लोगों को अपनी आत्मा की कोई खबर ही नहीं है, ये आत्मज्ञान से रहित मूढ़ जन हैं जो बाहरी विधि-विधान और किताबी ज्ञान को ही असली ज्ञान मानकर मगन रहते हैं।
हिन्दू-मुसलमानों के बीच संघर्ष कबीर के युग की सामान्य घटना थी। मुसलमान जहाँ तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए प्रयत्नशील थे वहीं हिन्दू सत्ता गँवाकर अपनी धर्म-रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। हिन्दू ईश्वर को राम कहते थे तो मुसलमान रहमान।
Kabir Ke Dohe with meaning, Kabir ke Dohe in Hindi
कबीर की दृष्टि में यह नाम का भेद है। तत्त्वतः राम और रहमान एक ही ईश्वर के दो नाम हैं। यह तात्त्विक बात, यह रहस्य दोनों में से किसी की समझ में नहीं आता है और दोनों ईश्वर को भूलकर उसके नाम पर लड़कर मर रहे हैं। कबीर की दृष्टि में यह मूर्खता है।
कबीर अपना अगला निशाना नकली और ज्ञान-शून्य गुरुओं और उनके मूढमति शिष्यों को बनाते हैं। वे कहते हैं कि वे गुरु लोग अपनी महिमा के अभिमान से भरे हुए हैं और घर-घर घूम-घूम कर गुरुमंत्र दे रहे हैं यानी शिष्य बना रहे हैं। ये सब मूढ़ अभिमानी और ज्ञानशूल हैं।
ये सारे शिष्य गुरु सहित एक दिन पछतायेंगे और अपनी वास्तविकता जानकर अन्त समय में निष्फलता की पीड़ा से दुःखी होंगे। कबीर कहते हैं कि मैं लोगों को कितना भी समझाता हूँ लेकिन लोग नहीं मानते हैं। अपने आप में ही समाये रहते हैं अर्थात् अपने में मग्न रहते हैं दूसरों की सही बात भी नहीं सुनना चाहते हैं।
कबीर दास के दोहे
अपने प्रेम-सम्बन्धी द्वितीय पद में वे ईश्वर को सम्बोधित करते हुए पूछना चाहते हैं कि तुम कब कृपा करके अपने दर्शन दोगे? इसी क्रम में अपनी आतुरता, अपनी दशा तथा अपने प्रेम को अभिव्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि मैं दिन-रात तुम्हारे दर्शन के लिए आतुर रहता हूँ।
प्रेमाकुलता ने मुझे इस प्रकार व्याप्त कर लिया है कि मैं चैन से नहीं रह सकता। मेरे नेत्र तुम्हें चाहते हैं अर्थात् तुम्हें देखते रहना चाहते हैं। अतः ये एकटक तुम्हारी प्रतीक्षा करते रहते हैं और तनिक भी हार नहीं मानते हैं। कबीरदास अपनी दशा बताते हुए कहते हैं तुम्हारे विरह की अग्नि मुझे बहुत जलाती है।
अर्थात् तुम्हारे पाने की व्याकुलता दाहक बन गयी है। जैसे आग में जला व्यक्ति बहुत बेचैनी अनुभव करता है उसी तरह मैं तुम्हारे बिना बेचैनी अनुभव करता हूँ। इससे तुम विचार कर सकते हो कि तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम कितना गहरा है और तुम्हारे बिना मैं कितना विकल हूँ।
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वे प्रभु का ध्यान आकृष्ट करते हुए कहते हैं कि हे गोसाईं अर्थात् मेरे स्वामी मेरी वाणी अर्थात् मेरा बयान, मेरी प्रार्थना, मेरी पीड़ा या मेरी फरियाद सुनो, तुम बहरे की तरह मेरी फरियाद अनसुनी मत करो। तुम धैर्यवान हो, देर तक किसी की आतुर पुकार को अनसुनी करने की क्षमता तुममें है।
(क्योंकि मेरी तरह तुमसे प्रीति करने वाले लोग अनेक हैं।) लेकिन मुझमें धैर्य नहीं है, मैं विरह-व्यथा से बेचैन होकर तुरत आतुर हो जाता हूँ। वैसे ही जैसे कच्चे घड़े में जल बहुत देर तक नहीं टिक पाता है, कच्चेपन के कारण शीघ्र गला कर बाहर बह जाता है। आगे वे निवेदन करते हैं कि हे माधव, तुमसे बिछुड़े बहुत दिन हो गये।
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अब मन धीरज नहीं धर पा रहा है। मेरी देह विरह-ताप से क्षत हो गयी है, मैं (कबीर) अत्यन्त आर्त हो गया हूँ अतः मिलने की कृपा करो। निष्कर्षतः इस पद में Kabir das ने परमात्मा के प्रति अपने अनन्य प्रेम और परमात्मा से न मिल पाने की अकुलाहट में अपनी पीड़ा का वर्णन करते हुए मिलने की अधीर आकांक्षा व्यक्त की है।
यह कहा जा सकता है कि कबीर ने धार्मिक जीवन की विडम्बनाओं, रूढ़ियों, अन्धविश्वासों और मूर्खताओं को उजागर किया है और धर्म के नाम पर होने वाली ठगी का विरोध किया संतो देखत जग बौराना .............. उनमें कछु नहिं ज्ञाना।
कबीरदास जी ने धार्मिक क्षेत्र में प्रचलित उलटी रीति और संसार के लोगों के बावलेपन का उल्लेख किया है। वे संतों अर्थात् सज्जन तथा ज्ञान-सम्पन्न लोगों को सम्बोधित करते हए कहते हैं कि संतो । देखो, यह संसार बावला या पागल हो गया है? इसने उल्टी राह पकड़ ली है। जो सच्ची बात कहता है उसे लोग मारने दौड़ते हैं। इसके विपरीत जो लोग गलत
और झूठी बातें बताते हैं उन पर वे विश्वास करते हैं। मैंने धार्मिक नियमों और विधि-विधानों का पालन करने वाले अनेक लोगों को देखा है। वे प्रातः उठकर स्नान करते हैं, तथा मंदिरों में जाकर पत्थर की मूर्ति को पूजते हैं।
मगर उनके पास तनिक भी ज्ञान नहीं है। वे अपनी आत्मा को नहीं। जानते हैं और उसकी आवाज को मारते हैं, अर्थात् अनसुनी करते हैं, सारांशत: Kabir das कहना चाहते हैं कि ऐसे लोग केवल बाहरी धर्म-कर्म और नियम-आचार जानते हैं जबकि अन्तः ज्ञान से पूर्णत: शून्य हैं।
बहुतक देखा पीर औलिया ............ उनमें उहै जो ज्ञाना।
कबीरदास जी ने अपने पद की मुसलमानों के तथाकथित पीर और औलिया के आचरणों का परिहास किया है। वे कहते हैं कि मैंने अनेक पीर-औलिये को देखा है 'जो नित्य कुरान पढ़ते रहते हैं। उनके पास न तो सही ज्ञान होता है और न कोई सिद्धि होती है।
फिर भी वे लोगों को अपना मुरीद यानी अनुगामी या शिष्य बनाते और उन्हें उनकी समस्याओं के निदान के उपाय बताते चलते हैं। यही उनके ज्ञान की सीमा है। निष्कर्षतः Kabir das कहना चाहते हैं कि ये पीर-औलिया स्वतः अयोग्य होते हैं लेकिन दूसरों को ज्ञान सिखाते फिरते हैं। इस तरह ये लोग ठगी करते हैं।
आसन मारि डिंभ धरि ............ आतम खबरि न जाना।
कबीरदास जी का स्पष्ट मत है कि जिस तरह मुसलमानों के पीर औलिया ठग हैं उसी तरह हिन्दुओं के पंडित ज्ञान-शूल। वे कहते हैं कि ये नकली साधक मन में बहुत अभिमान रखते हैं और कहते हैं कि मैं ज्ञानी हूँ लेकिन होते हैं ज्ञान-शूल। ये पीपल पूजा के रूप में वृक्ष पूजते हैं, मूर्ति पूजा के रूप में पत्थर पूजते हैं। तीर्थ कर आते हैं तो गर्व से भरकर अपनी वास्तविकता भूल जाते हैं।
ये अपनी अलग पहचान बताने के लिए माला, टोपी, तिलक, पहचान चिह्न आदि धारण करते हैं और कीर्तन-भजन के रूप में साखी, पद आदि गाते-गाते भावावेश में। बेसुध हो जाते हैं। इन आडम्बरों से लोग इन्हें महाज्ञानी और भक्त समझते हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि इन्हें अपनी आत्मा की कोई खबर नहीं होती है। कबीर के अनुसार वस्तुतः ये ज्ञानशून्य और ढोंगी महात्मा हैं।
हिन्दु कहै मोहि राम पियारा ........... मरम न काहू जाना।
कबीर कहते हैं कि हिन्दू कहते हैं कि हमें राम प्यारा है। मुसलमान कहते हैं कि हमें रहमान प्यारा है। दोनों इन दोनों को अलग-अलग अपना ईश्वर मानते हैं और आपस में लड़ते तथा मार काट करते हैं। मगर, Kabir das के अनुसार दोनों गलत हैं। राम और रहमान दोनों एक सत्ता के दो नाम हैं। इस तात्त्विक एकता को भूलकर केवल नाम-भेद के कारण दोनों को भिन्न मानकर आपस में लड़ना मूर्खता है। अतः दोनों ही मूर्ख हैं जो राम-रहीम की एकता से अनभिज्ञ हैं।
घर घर मंत्र देत ................ सहजै सहज समाना।
कबीरदास जी इन पंक्तियों में कहते हैं कि कुछ लोग गुरु बन जाते हैं मगर मूलतः वे अज्ञानी होते हैं। गुरु बनकर वे अपने को महिमावान समझने लगते हैं। महिमा के इस अभिमान से युक्त होकर वे घर-घर घूम-घूम कर लोगों को गुरुमंत्र देकर शिष्य बनाते चलते हैं। Kabir das के मतानुसार ऐसे सारे शिष्य गुरु सहित बूड़ जाते हैं;
अर्थात् पतन को प्राप्त करते हैं और अन्त समय में पछताते हैं। इसलिए कबीर संतों को सम्बोधित करने के बहाने लोगों को समझाते हैं कि ये सभी लोग भ्रमित हैं, गलत रास्ते अपनाये हुए हैं। मैंने कितनी बार लोगों को कहा है कि आत्मज्ञान ही सही ज्ञान है लेकिन ये लोग नहीं मानते हैं। ये अपने आप में समाये हुए हैं,
अर्थात् स्वयं को सही तथा दूसरों को गलत माननेवाले मूर्ख हैं। यदि आप ही आप समाज का अर्थ यह करें कि कबीर ने लोगों को कहा कि अपने आप में प्रवेश करना ही सही ज्ञान है। तब यहाँ आपहि आप समान' का अर्थ होगा - 'आत्मज्ञान प्राप्त करना' जो कबीर का प्रतिपाद्य है।
हो बलिया कब देखौंगी ............. न मानें हारि।
कबीरदास जी ने ईश्वर के दर्शन पाने की अकुलाहट भरी इच्छा व्यक्त की है। वे कहते हैं कि प्रभु मैं तुम्हें कब देखूगा ? अर्थात् तुम्हें देखने की मेरी इच्छा कब पूरी होगी, तुम कब दर्शन दोगे? मैं दिन-रात तुम्हारे दर्शन के लिए आतुर रहता हूँ। यह इच्छा मुझे इस तरह व्याप्त किये हई है कि एक पल के लिए भी इस इच्छा से मुक्त नहीं हो पाता हूँ।
मेरे नेत्र तुम्हें चाहते हैं और दिन-रात प्रतीक्षा में ताकते रहते हैं। नेत्रों की चाह इतनी प्रबल है कि ये न थकते हैं और न हार मानते हैं। अर्थात् ये नेत्र जिद्दी हैं और तुम्हारे दर्शन किये बिना हार मानकर बैठने वाले नहीं हैं। अभिप्राय यह कि जब ये नेत्र इतने जिद्दी हैं, और मन दिन-रात आतुर होते हैं तो तुम द्रवित होकर दर्शन दो और इनकी जिद पूरी कर दो।
"बिरह अगिनि तन ............... जिन करहु बधीर।"
कबीरदास जी अपनी दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे स्वामी ! तुम्हारे वियोग की अग्नि में यह शरीर जल रहा है, तुम्हें पाने की लालसा आग की तरह मुझे दग्ध कर रही है। ऐसा मानकर तुम विचार कर लो कि मैं दर्शन पाने का पात्र हूँ या उपेक्षा का?
कबीरदास जी अपनी विरह-दशा को बतला कर चुप नहीं रह जाते हैं। वे एक वादी अर्थात् फरियाद करने वाले व्यक्ति के रूप में अपना वाद या पक्ष या पीड़ा निवेदित करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि तुम मेरी पुकार सुनो, बहरे की तरह अनसुनी मत करो। पंक्तियों की कथन-भंगिमा की गहराई में जाने पर स्पष्ट ज्ञात होता है
कि कबीर याचक की तरह दयनीय मुद्रा में विरह-निवेदन नहीं कर रहे हैं। उनके स्वर में विश्वास का बल है और प्रेम की वह शक्ति है जो प्रेमी पर अधिकार-बोध व्यक्त करती है।
तुम्ह धीरज मैं आतुर ............ आरतिवंत कबीर।
अपने आध्यात्मिक विरह-सम्बन्धी पद की कबीर अपनी तुलना आतुरता और ईश्वर की तुलना धैर्य से करते हुए कहते हैं कि हे स्वामी ! तुम धैर्य हो और मैं आतुर। मेरी स्थिति कच्चे घड़े की तरह है। कच्चे घड़े में रखा जल शीघ्र घड़े को गला कर बाहर निकलने लगता है। उसी तरह मेरे भीतर का धैर्य शीघ्र समाप्त हो रहा है अर्थात मेरा मन अधीर हो रहा है।
आपसे बहुत दिनों से बिछुड़ा हुआ हूँ, मन अधीर हो रहा है तथा शरीर क्षीण हो रहा है। अतः अपने इस आर्त्त भक्त कबीर पर कृपा कीजिए और शीघ्र अपने दर्शन दीजिए।
कबीर की विरह-भावना
कबीर परमात्मा से प्रेम करने वाले भक्त हैं। उनकी प्रीति पति-पत्नी भाव की है। परमात्मा रूपी पति से मिलन नहीं होने के कारण वे विरहिणी स्त्री की भाँति विरहाकुल रहते हैं। वे प्रियतम के दर्शन हेतु दिन-रात आतुर रहते हैं। उनके नेत्र उन्हें देखने के लिए सदैव आकुल रहते हैं। वे विरह की आग में सदैव जलते रहते हैं। एक वाक्य में उनकी दशा यही है कि "तलफै बिनु बालम मोर जिया। दिन नहिं चैन, रात नहिं निदिया तरप तरप कर भोर किया।"
हिन्दू-मुस्लिम के धार्मिक झगड़े और कबीर की दृष्टि
कबीर ने हिन्दू-मुसलमान दोनों की धार्मिक दृष्टि की आलोचना की है और धर्म के नाम पर लड़ने की निन्दा की है। वे कहते हैं कि - "हिन्दू कहता है – मुझे राम प्यारा है, मुसलमान कहता है-मुझे रहमान प्यारा है।" और, इस तरह दोनों राम-रहमान के भेद को लेकर आपस में लड़ते हैं।
और मर जाते हैं। कबीर कहते हैं कि ये दोनों मूर्ख हैं और इन्हें ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं है। ये भीतरी एकता को नहीं समझते हैं और बाहरी तत्त्व को लेकर मार-काट मचाते हैं।
कबीर की दृष्टि में नकली उपासना और उपासक
कबीर की दृष्टि में मंदिर-मस्जिद में जाना, पूजा-उपासना करना नकली चीज है। असली चीज आत्मज्ञान है - "आत्म ज्ञान बिना सब सूना।" इसलिए वे पूजा-उपासना करने वाले को अज्ञानी मानते हैं। उनकी दृष्टि में आत्मज्ञान (हित ये उपासक नित्य स्नान करते हैं और पत्थर की मूर्ति की उपासना करते हैं। मन में अपने ज्ञान और साधना का अहंकार लेकर तपस्या हेतु आसन लगाते हैं।
तीर्थ-व्रत करके पुण्य प्राप्त करने का दंभ भरते हैं। माला-टोपी धारण करते हैं। भजन-कीर्तन के रूप में साखी-सबदी गाते-गाते बेसुध हो जाते हैं। लेकिन इन्हें अपनी आत्मा की खबर नहीं होती है। ये अज्ञानी उपासक नहीं जानते हैं कि इनका सारा प्रयत्न बेकार है क्योंकि यह नकली है दिखावटी है, इसमें आत्मा का योग कहीं नहीं है।
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- Q. कबीर विरह की दशा में क्या अनुभव करते हैं ?
Ans. कबीर को विरह की अग्नि जलाती है, आतुरता और उद्वेग पैदा करती है तथा मन धैर्य से रहित हो जाता है।
- Q. कबीर परमात्मा से क्या चाहते हैं ?
Ans. कबीर परमात्मा का दर्शन चाहते हैं, विरह-दशा की समाप्ति और मिलन का सुख चाहते हैं।
- Q. कबीर के अनुसार हिन्दू-मुस्लिम किस मुद्दे पर लड़ते हैं ?
Ans. हिन्दू-मुसलमान नाम की भिन्नता और उपासना की भिन्नता को लेकर लड़ते हैं।
- Q. कबीर की दृष्टि में नकली उपासक क्या करते हैं?
Ans. नकली उपासक नियम-धरम का विधिवत पालन करते हैं, माला-टोपी धारण करते हैं। आसन लगाकर उपासना करते हैं, पीपल-पत्थर पूजते हैं. तीर्थव्रत करते हैं तथा भजन-कीर्तन गाते हैं। ।
- Q. कबीर की दृष्टि में नकली गुरु लोग क्या करते हैं ?
Ans. नकली गुरु लोग किताबों में पढ़े मन्त्र देकर लोगों को शिष्य बनाते हैं और ठगते हैं। इन्हें अपने ज्ञान, महिमा तथा गुरुत्व का अभिमान रहता है लेकिन वास्तव में ये आत्मज्ञान से रहित, मूर्ख, ठग और अभिमानी होते हैं।
- Q. कबीर के अनुसार ईश्वर-प्राप्ति का असली मार्ग क्या है ?
Ans. ईश्वर-प्राप्ति का असली मार्ग है आत्मज्ञान अर्थात् अपने को पहचानना और अपनी सत्ता को ईश्वर से अभिन्न मानना तथा ईश्वर से सच्चा प्रेम करना।पद - संतो देखत जग बौराना
- बौराना = पागल या उन्मत्त होना
- धावे = दौड़े
- पतियाना = विश्वास करना
- नेमी = नियम का पालन करने वाला
- धरमी = धर्म-सम्बन्धी विधानों के अनुसार आचरण करने वाला
- असनाना = स्नान
- आतम = आत्मा
- पखानहि = पत्थर को
- बहुतक = अनेक
- पीर = पीड़ा हरने वाला संत या सिद्ध पुरुष
- औलिया = ज्ञानी, साधक
- भक्त, मुरीद = अनुगत
- शिष्य, तदबीर - युक्ति
- तरीका डिंभ = दंभ
- साखी - साक्षी
- सबद = शब्द
कबीर ने संसार को बौराया हुआ क्यों कहा है ?
संसार ईश्वर के सही रूप आत्मज्ञान को भलकर स्नान-पूजा, माला तिलक आदि के पचड़े में पड़ा हुआ है। वह इसे ही धर्म और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग समझता है। कबीर के अनुसार यह सही मार्ग नहीं है। चूंकि गलत राह पर पागल-उन्मत्त आदि प्रकार के लोग ही चलते हैं, सही लोग नहीं, अत: कबीर ने संसार को बौड़ाया या पागल कहा है।
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