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Lochan Dhay Phoghayal Shirsak Pad Ka Bhavarth | लोचन धाय फोघायल' शीर्षक पद का भावार्थ प्रस्तुत करें।

Lochan Dhay Phoghayal Shirsak Pad Ka Bhavarth | लोचन धाय फोघायल' शीर्षक पद का भावार्थ प्रस्तुत करें। उत्तर-'लोचन धाय फेधायल' शीर्षक पद महाकवि विद्यापति रचित उनका एक विरह-पद है जिसमें श्रृंगार का वियोग पक्ष अपनी पूरी गंभीरता, मार्मिकता और स्वाभाविकता के साथ संवेदनामयी भाषा में उद्घाटित हुआ है।

Lochan Dhay Phoghayal Shirsak Pad Ka Bhavarth | लोचन धाय फोघायल' शीर्षक पद का भावार्थ प्रस्तुत करें।

अपनी सखी के प्रति कथन करती हुई नायिका कहती है कि श्री कृष्ण के वियोग में उनकी प्रतीक्षा करती हुई मेरी दशा अत्यंत दयनीय हो रही है। मेरी आँखें दर्शनोत्सुक होकर उन्हें चारों तरफ ढूँढ रही है किन्तु ये आँखें उन्हें नहीं पाकर अत्यंत निराश हैं। रो-रोकर ये आँखें फूल-सी गई हैं और ये प्राण जो निकल नहीं रहे हैं जैसे अभी भी प्राण, मिलन के प्रति आशान्वित हैं। आगे वह कहती है कि उड़कर 

उनसे मिल आऊँ पर वह हरि कहाँ हैं जिन्हें पारसमणि समझकर उसने अपने ह्रदय में बसाया ताकि शांति मिले। अपने स्वप्न की चर्चा करती हुई आगे वह कहती है कि स्वप्न में श्री कृष्ण उसे मिले थे और उसे असीम आनन्द की अनुभूति भी हुई थी। किन्तु धाता ने जैसे उसे विघटित कर दिया अर्थात् वह स्वप्न साकार नहीं हो सका। यह सुनकर सखी उसे आश्वस्त करती हुई कहती है कि वह धैर्य रखे श्री कृष्ण उसे शीघ्र ही मिलेंगे और उसकी मनोकामनाएं पूरी होंगी।

लोचन धाय फोघायल हरि नहिं आयल रे।
सिव-सिव जिव नहिं जाय आस अरुझायल रे।।

मन कर तहाँ उडि जाइ जहाँ हरि पाइअ रे।
पेम-परसमनि-पानि आनि उर लाइअ रे।।

सपनहु संगम पाओल रंग बढाओलरे।
से मोर बिहि विघटाओल निन्दओ हेराओल रे।।

सुकवि विद्यापति गओल धनि धइरज धरु रे।
अचिरे मिलत तोर बालमु पुरत मनोरथ रे।।

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