Student life essay, Paragraph on Student life, Student life par Nibandh. विद्यार्थी जीवन आज का विद्यार्थी कल का नागरिक होगा। निस्सन्देह, विद्यार्थी जीवन में ही भविष्य की नींव पड़ती है। यह नींव जितनी गहरी और दृढ़ होगी, उतना ही जीवन-प्रवाह दृढ़, स्थायी और भव्य होगा। भविष्य को समुज्जवल बनाने का यह स्वर्ण काल है।
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यदि विद्यार्थी अपने जीवन के इन वर्षों का सदुपयोग करता है, और यदि उसके संरक्षक तथा गुरुजन उसे चरित्र निर्माण और विद्याभ्यास करने में पूर्ण सहायता देते हैं तो उसके भावी जीवन के सुखपूर्ण होने में तनिक भी सन्देह नहीं रह जाता। सभी महापुरुष विद्यार्थी-जीवन में संयमी, सदाचारी, आज्ञाकारी, सत्यनिष्ठ, परिश्रमी और समय पालक रहे हैं।
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ज्यों-ज्यों वे बढ़ते गए, त्यों-त्यों वे विनीत और नम्र होते गये। "होनहार वीरवान के होत चीकने पात।" विद्यार्थी जीवन में उनके कार्यों ने उनका उज्जवल भविष्य अकित कर दिया। गोपाल कृष्ण गोखले, महामना मालवीय, महात्मा गाँधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं।
विद्यार्थियों के लिए आत्मावलम्बी होना परमावश्यक है। बहुत से विद्यार्थी केवल शिक्षक के पढ़ाने पर निर्भर रहते हैं और अपव्ययी होने के कारण माता-पिता से अधिक-से-अधिक धन प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। फलतः विद्यार्थी जीवन समाप्त होने पर भी वे दूसरों का मुख ताका करते हैं। उन्हें किसी बात से सन्तोष नहीं होता। उनका जीवन नैराश्यपूर्ण होता है।
मनुष्य का स्वास्थ्य बाल्यावस्था से ही बनता या बिगड़ता है। जो शिक्षा बालक के केवल मस्तिष्क का विकास करती है शरीर का नहीं, वह अधूरी है, उससे लाभ की अपेक्षा हानि होती है। शिक्षा का अभिप्राय मस्तिष्क और शरीर दोनों को विकसित करना है। शरीर का मस्तिष्क से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि एक की उन्नति हो और दूसरे की अवनति तो भविष्य में दोनों को क्षति पहुँचेगी। यदि किसी का सिर शरीर की नाप से बहुत बड़ा हो तो वह निहायत बेढंगा प्रतीत होगा।
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अतः मानसिक और शारीरिक उन्नति एक साथ होना ही हितकर होता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क होता है। बालकों को प्रारम्भ से आधुनिक खेलों के अतिरिक्त लकड़ी चलाने, पेड़ पर चढ़ने, दौड़ने, तैरने, कुश्ती लड़ने, निशान लगाने आदि का अभ्यास होना चाहिए। स्वास्थ्य स्थिर रखने के लिए संयमी होना परमावश्यक है। स्वस्थ मनुष्य सदा प्रसन्न रहते हैं और भारी विपत्ति आने पर भी नहीं घबड़ाते।
विद्यार्थी जीवन में भविष्य निश्चित रहता है। उसे न भोजन की चिन्ता होती है और न वस्त्र की, और न उसके ऊपर गृहस्थी का भार ही होता है। चाहे वह सिनेमा देखे, चाहे थियेटर, उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं। उसकी गति में चुलबुलाहट, हृदय में उमंग, चित्त में प्रसन्नता, मुख पर भोलापन और वाणी में मिठास होती है। वह आशावादी होता है, उसका प्रसन्न होना स्वाभाविक है।
एक समय था, जब भारतवर्ष में देश-देशान्तर से विद्यार्थी आकर अपनी ज्ञान-पिपासा तृप्त करते थे। कारण यह पुण्य-भूमि साहित्य और विज्ञान के पारंगत विद्वानों से परिपूर्ण थी। वे राजा से लेकर रंक तक सबकी सन्तानों को न केवल निःशुल्क शिक्षा प्रदान करते थे, बल्कि उनके निवास स्थान, भोजन और वस्त्र का भी प्रबन्ध करते थे।
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फलतः विद्यार्थियों की उन पर अपार श्रद्धा और भक्ति थी। गुरु की आज्ञा का पालन करना विद्यार्थियों का कर्त्तव्य था। वे नगरों से दूर रहकर विलास के पास फटकते तक न थे। उनका रहन-सहन बिल्कुल सादा था। साधारण भोजन और वस्त्र ही उनके जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त थे। अध्ययन और व्यायाम के सिवाय उनकी कोई तीसरी क्रिया न थी।
आधुनिक विद्यार्थियों से उनकी तुलना करने पर आकाश-पाताल का सा अन्तर प्रतीत होता है। आजकल के विद्यार्थियों में यदि ये बातें न हों, तो वे विद्यार्थी नहीं कहे जा सकते। प्राचीन विद्यार्थियों की कान्ति और आभा से उनकी विद्या तथा बल प्रकट होता था। आजकल की तरह
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कोई विद्यार्थी पांडुवर्ण क्षीणकाय; म्लान एवं निष्प्रभ-मुख न था। उनकी वाणी में माधुर्य था, अप्रिय वाक्य बोलना उनके लिए घोर पाप था। किसी का हृदय दुखाना उनकी नीति के बाहर था। गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त करना ही वे पारितोषिक समझते थे।
आज के विद्यार्थी-जीवन में सुधार की आवश्यकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें वही शिक्षा प्रदान करनी चाहिए जिसमें उनकी रुचि हो और जो उनकी जीविका चलाए। शिक्षक और शिष्य दोनों का रहन-सहन केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नितान्त वांछनीय है। चरित्र-निर्माण के लिए आध्यात्मिक विषयों का पठन-पाठन आवश्यक है। मानसिक और शारीरिक शिक्षा में समानता लाने पर ही विद्यार्थी जीवन संतुलित बन सकता है।
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