Maithili Sharan Gupt ka Kavi-Parichay Prastut Kijiye. मैथिलीशरण गुप्त का कवि-परिचय प्रस्तुत कीजिए। अथवा, मैथिलीशरण गुप्त का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत करते हुए उनके काव्यगत वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालें।
उत्तर - आधुनिक हिन्दी काव्य-साहित्य के अन्तर्गत मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग का प्रतिनिधित्व करने वाले वह पहले कवि हैं जिनकी कविताओं में युग-जीवन के साथ-साथ स्वर्णिम अतीत का समन्वय प्रस्तुत हुआ है। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार, "
Maithili Sharan Gupt ka Kavi-Parichay Prastut Kijiye
गुप्तजी जितना प्राचीन साहित्य से, प्राचीन गाथाओं से प्रभावित हुए हैं उतना ही आधुनिक जीवन से भी।... उन्होंने प्राचीन कथाओं को नवीन आदर्शों का निरूपक बनाकर प्रस्तुत किया है।"
गुप्तजी अपने युग को स्वर्णिम विहान का स्वप्न दिखलाने वाले वह पहले कवि हैं जिन्होंने एक ओर अपनी कविताओं में काव्योपेक्षिताओं के प्रति उदात्तता दर्शाते हुए उनका उद्धार किया है वहीं दूसरी ओर एक आशावादी कवि के रूप में युग-जीवन में आशा का संचार करते हुए यहाँ तक कहा है कि,
'आशा से आकाश थमा है स्वांस-तन्तु कब टूटे।' गुप्तजी ने एक ओर नारी की अव्यक्त वेदना को वाणी देकर उर्मिला, यशोधरा आदि नारियों का उद्धार करते हुए स्वयं के कौटुम्बिक कवि होने का परिचय दिया है वहीं दूसरी ओर अपनी कविताओं में जन-जागरण का
Maithili Sharan Gupt
शंखनाद करते हुए स्वयं को एक ऐसे राष्ट्रीय कवि के रूप में प्रस्तुत किया है जिनकी कविताओं में राष्ट्रीयता का सशक्त स्वर प्रथमतः ध्वनित हुआ। इस दृष्टि से उनकी अग्रांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं
"हम क्या थे क्या हो गये क्या होंगे अभी,
बैठकर सोंचे आज ये समस्याएँ सभी।" मैथिलीशरण गुप्त का जन्म मध्यप्रदेश राज्यान्तर्गत झाँसी के चिरगाँव में 3 अगस्त सन् 1886 ई. को एक मध्यवर्गीय गृहस्थ परिवार में हुआ था।
रामचरण दास
उनके पिता का नाम सेठ रामचरण दास तथा माता का नाम काशीबाई था। उनके पिता अत्यंत धार्मिक प्रवृति के थे यही कारण था कि सुबह बिस्तर से उठते ही राम नाम की महिमा गाते हुए वे लोगों को जगाया करते थे। अपने पिता से उन्हें राम-भक्ति का संस्कार प्राप्त हुआ तो माता से वात्सल्य का प्रसाद किन्तु उन्हें अपने माता-पिता का स्नेह अधिक दिनों तक प्राप्त नहीं रहा।
उनके पिता सन् 1903 ई० में तथा माता सन् 1905 ई. में सिधार गये तत्पश्चात उनका पालन-पोषण उनके छोटे चाचा भगवान दास जी ने ही किया। अपनी प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने अपने पैतृक गाँव चिरगाँव में ही प्राप्त की। बाद में वे झाँसी के मेक्डॉन्ल हाई स्कूल में दाखिल किये गये जहाँ उन्होंने अंग्रेजी सीखी। उन्हें अपनी अद्भुत प्रतिभा के कारण ही पद्मभूषण, राष्ट्रकवि आदि अनेक उपाधियाँ प्राप्त हुईं।
सन् 1952 ई. में उन्हें राज्यसभा में छ: वर्षों के लिए सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया। आजीवन काव्य-साधना से जुड़े रहते हुए 12 दिसम्बर, सन् 1964 ई० को इस असार संसार को छोड़कर सदा के लिये उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर ली। आज वे नहीं होकर भी अपनी कृतियों में अमर हैं।
जन्मभूमि
गुप्तजी अपने युग के वह पहले कवि हैं जिनकी रचनाओं में प्राचीन और नवीन का मणिकांचन संयोग दृष्टिगोचर होता है। अपने देश के स्वर्णिम अतीत और अपनी जन्मभूमि के प्रति उनकी गहन आस्था उनके काव्य में अनेक स्थलों में अभिव्यक्त हुई है।
वे अपने जन-समाज के अत्यंत निकट ही नहीं रहे अपितु उन्हें अपने जन-समाज का ही कवि कहा गया क्योंकि अपने काव्य द्वारा उन्होंने एक ओर जहाँ देश-जीवन और संस्कृति का सच्चा रूप दिखलाया है वहीं दूसरी ओर भारतीय संस्कृति की रक्षा और युगीन समाज को जगाने की दिशा में भी उन्होंने स्तुत्य प्रयत्न किये।
गुप्तजी राष्ट्रकवि होने के साथ-साथ संवेदनशीलता,
उदारता, सहिष्णुता, भावुकता, आशावादिता सभी दृष्टियों से अत्यंत ही सफल कवि हैं। उनके व्यक्तित्व की अन्तर्मुखता उनके काव्य में स्पष्टतया मुखर होती है। अतीत के प्रति राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के हृदय में गहरी आस्था है तभी तो वे कहते हैं कि, -
"जगत ने जिसके पद थे छुए, रूल देश ;णी जिसके हुए।ललित लाभ कला सब थीं जहाँ, अब हा वह भारत है कहाँ ?"
एक स्थल पर भारत का कथन अग्रांकित शब्दों में यों दृष्टिगत होता है
समाज-सुधार
"विश्व तुम्हारा भारत मैं हूँ या था चिन्तारत हूँ मैं। मैं ही हूँ वह जन-मन-भाया, आर्य जाति ने जिसे बसाया। नाम भारत से जिसने पाया, सचमुच ही क्या भारत हूँ मैं, हूँ या था चिन्तारत हूँ मैं।" गुप्त जी अपने अतीत के प्रति जितने आस्थावान हैं उतने ही समाज-सुधार के इच्छुक थी।
यदि कहा जाय तो वे समाज-सुधार अतीत-गान द्वारा ही करने के इच्छुक हैं। वे अग्रांकित पक्तियों में देश की सांस्कृतिक विरासत से विमुख होकर उसके विरूद्ध टिप्पणी करनेवालों की खबर लेते हुए कहते हैं
“सचमुच ही क्या फाग खेलना है असभ्यता-लक्षण।
सभ्यों की यह नयी समझ है अद्भुत और विलक्षण ! किन्तु हमारी ग्राम्य बुद्धी में यही बात दृढ हो ली। पारस्परिक प्रेम-बन्धन को दृढ़ करती है होली।।" एक राष्ट्रकवि के रूप में गुप्तजी अपनी मातृभूमि की वंदना करते हुए कहते हैं कि
Maithili Sharan Gupt ka Kavi-Parichay Prastut Kijiye
"नीलांबर परिधान हरित पट पर सुन्दर है, सूर्यचन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर हैं नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन है, बंदी जन खग-वृन्द, शेष–फन सिंहासन हैं करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस वेष की, हे मातृभूमि ! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त उन्हें मनुष्य-रूप में पशु और मृतवत मानते हैं जिनके हृदय में देश के प्रति अभिमान का अभाव पाते हैं तभी तो वे कहते हैं कि,
"जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान हैं"
गुप्तजी वैष्णव कवियों की परंपरा में मध्ययुग की वैष्णव भावना अपनाये हुए दिखायी देते हैं जिन्हें कविता साधन के रूप में ही मान्य रही है। उनकी वैष्णवता युग-धर्म की छाप लिये उनके काव्य से पूरी तरह स्पष्ट है। अपनी कविता-रचना का श्रेय श्री राम को देते हुए वे कहते हैं कि,
"आनन्ददात्री शिक्षिका है सिद्ध कविता कामिनी,है जन्म से ही वह यहाँ श्रीराम की अनुगामिनीं'
वैष्णव या मानवतावादी कवि होने के कारण ही गुप्तजी की कविताओं में आशावादी स्वर ध्वनित होता है। वे कभी निराश नहीं होना चाहते हैं। वे स्वर्णिम विहान का स्वप्न पूरा करने के प्रति कृतसंकल्प दिखायी देते हैं, वे कभी कहते हैं कि,
'नर हो, न निराश करो मन को
तो कभी वे कहते हैं
"गिरना क्या उसका उठी ही नहीं जो कभी,मैं ही तो उठा था आप गिरता हूँ जो अभीगिरकर भी उलूंगा और बढ़कर रहूँगा मैं,नर हूँ, पुरुषार्थ है, चढ़के रहूँगा मैं"
गुप्तजी के अन्तस् में अपनी गौरवपूर्ण प्राचीन परम्परा के प्रति अत्यधिक श्रद्धा है। वे भारतीय संस्कृति के युगल प्राण श्री राम और श्री कृष्ण के अवतारत्व में विश्वास करते हैं और उनके प्रति अपनी गहरी आस्था को स्वर देते हैं। वे महात्मा बुद्ध को राम के वंश में ही स्वीकार करते हुए उनकी स्तुति अग्रांकित शब्दों में यों करते हैं
"धन्य हमारा भूमि-भार भीजिससे तुम अवतार धरोंयुक्ति-मुक्ति माँगे क्या तुमसे,हमें भक्ति दो, ओ अमिताभ !"
कवि की वैष्णवता उपर्युक्त पंक्तियों में पूर्णतया स्पष्ट होती है।
गुप्तजी अपने काव्य में प्राचीन को नवीन के साथ इसीलिए मिलाते हैं कि वे दोनों से ही प्रभावित हैं फिर भी सामंजस्यवादी कवि हैं। स्वर्णिम अतीत के प्रति उनमें जितनी श्रद्धा है उतनी ही उदारता उनमें वर्तमान के प्रति दृष्टिगोचर होती है और यही विशेषता उनके समन्वयवादी होने का परिचय देती है।
जहाँ तक गुप्तजी की कविताओं के कला पक्ष का प्रश्न है तो वे खड़ी बोली को प्राणान्वित कर उसमें अपनी कविताएँ करने वाले प्रथम कवि के रूप में मान्य हैं। नि:संदेह उन्होंने खड़ी बोली को काव्योपयोगी भाषा के रूप में पहचान दी तदनुरूप आधुनिक हिन्दी खड़ी बोली कविता के प्रथम निर्माता के रूप में अपनी पहचान बनायी।
Patrachar || Sarkari Patrachar..... Ke Vibhinn Roop
इतना ही नहीं अपनी काव्य-भाषा को परिमार्जित एवं परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करते हुए उन्होंने काव्य में प्रसंगानुकूल छंदों के प्रयोग किये।
निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि गुप्त जी के व्यक्तित्व की असाधारणता उनके उन काव्यों में स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती है जिनके ऐतिहासिक और साहित्यिक मूल्य के अधिक होने से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
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