विद्यापति vidyaapati
विद्यापति का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत करते हुए उनके काव्यगत वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालें। अथवा, विद्यापति का कवि-परिचय प्रस्तुत करें।
उत्तर-आदिकालीन महाकवि विद्यापति हिन्दी कविता के क्षेत्र में मैथिल कोकिल के रूप में लोकप्रिय हैं। यह उपाधि उन्हें देशभाषा मैथिली में रचित अपने उन गीतों को लेकर प्राप्त हुई जिनमें माधुर्य का अखंड स्रोत
प्रवाहित होता है जिसका श्रेय उनकी जन्मभूमि विसपी को है जहाँ का प्राकृतिक एवं मानवीय परिवेश उनके
कवि-हृदय को भावों से भरता रहा। उनके गीतों में न केवल प्रेम एवं सौन्दर्य को अभिव्यक्ति मिली है
अपितु उनका भक्त हृदय आदि शक्ति, शिव एवं विष्णु के प्रति भक्ति-भावना से पूर्णतया ओत-प्रोत
दृष्टिगत होता है जो उनके भक्ति-परक गीतों से स्पष्ट है।
विद्यापति का सौन्दर्याग्रही मन प्रकृति के प्रत्येक कण में सौन्दर्य देखने के साथ-साथ उस सौन्दर्य के विविधरूपों को भी देखता है। उनकी वह सौन्दर्यानुभूति ही गीतों में अभिव्यक्त होकर सहदयों को सहज ही अपने प्रभाव में
लेती है। सौन्दर्य का जैसा व्यापक चित्रण उनके गीतों में हुआ है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
उनकी सौन्दर्य-दृष्टि ही उन्हें जीवन-दृष्टि प्रदान करती है।
विद्यापति का जन्म बिहार राज्यान्तर्गत दरभंगा जिले के विसपी ग्राम के मेथिल ब्राह्मण परिवार में
सन् 1380 ई. के लगभग हुआ था। उनके पिता का नाम गणपति ठाकुर था जिन्हें मिथिला के राजदरबार
में अत्यधिक सम्मान प्राप्त था। राजा शिवसिंह के अन्तरंग मित्र होने के कारण ही विद्यापति को उनसे
विसपी गाँव दानस्वरूप प्राप्त हुआ था। वे अपनी कवित्व-प्रतिभा के बल पर ही महान कवि हो सके।
उनके आश्रयदाता शिवसिंह ने उनकी कवित्व-प्रतिमा से ही प्रसन्न होकर उन्हें 'अभिनव जयदेव' की
उपाधि से अलंकृत किया।
मानवीय सौन्दर्य के प्रति विशेष आग्रह रखने के कारण ही विद्यापति ने अपनी पदावली में राधाकृष्ण को
क्रमश: नायिका और नायक के रूप में प्रस्तुत कर उनके प्रमिल साहचर्य में विविध शृंगारिक चेष्टाओं एवं
भाव-भंगिमाओं को व्यजित किया है। सच कहा जाय तो कवि के समस्त सौन्दर्य-बोध के आधार
राधा-कृष्ण ही हैं जो शृंगार के आश्रयालम्बन हैं।
हिन्दी-काव्य-साहित्य के अन्तर्गत विद्यापति भक्त, शृंगारी और जनकवि तीनों ही रूपों में मान्य हैं।
यद्यपि उन्होंने संस्कृत, मैथिली और अवहट्ट तीन भाषाओं में रचनाएँ की हैं किन्तु हिन्दी कविता के क्षेत्र
में उन्हें लोकप्रियता अपनी ‘पदावली' को लेकर प्राप्त है। संस्कृत और अवहट्ट में रचित उनकी रचनाएँ
उनके पांडित्य का परिचय देती हैं जबकि उनके मैथिली गीतों में कवि का सौन्दर्य-बोध कृष्ण-प्रेम में
पूर्णतया रूपायित होता दृष्टिगत होता है।अपने पदों में सौन्दर्य के प्रति कवि का दृष्टिकोण सर्वथा
मौलिक है। उनका सौन्दर्य उत्तरोनर नवीन होता जाता है तभी तो अपनी सखी से राधा कहती है कि
सखि हे, कि पूछसि अनुभव मोय। से हो पिरिति अनुराग बखानिअ
तिले तिले नूतन होय।
जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।" यहाँ नित नूतनता, प्रीति एवं रूप-सौन्दर्य
दोनों में ही कवि को समान रूप से दिखायी देती है।
नायिका का रूप-सौन्दर्य निर्मल और अनुपम है जिसे देखकर नायक उस ओर आकृष्ट होता है।
नायिका के रूप-सौन्दर्य के प्रति आकृप्ट नायक के मन में मिलनोत्कंठा उत्पन्न होती है।
वे अपनी वंशी पर सदैव राधा का नाम टरते रहते हैं और आखिरकार दोनों एक-दूसरे के दर्शन
अपनी स्वप्नावस्था में करते हैं जिसकी काव्याभिव्यक्ति विद्यापति की अग्रांकित पंक्तियों में होती है
जहाँ नायिका कहती है कि,
नायिका के रूप-सौन्दर्य के प्रति आकृप्ट नायक के मन में मिलनोत्कंठा उत्पन्न होती है।
वे अपनी वंशी पर सदैव राधा का नाम टरते रहते हैं और आखिरकार दोनों एक-दूसरे के दर्शन
अपनी स्वप्नावस्था में करते हैं जिसकी काव्याभिव्यक्ति विद्यापति की अग्रांकित पंक्तियों में होती है
जहाँ नायिका कहती है कि,
"सपनहु संगम पाओल रंग · बढ़ाओल रे
मन कर तहाँ उडि जाइअ जहाँ हरि पाइअ रे।" नायिका के अनुपम रूप-सौन्दर्य में उसके काले सुन्दर बाल की
छटा देखते ही बनती है जिस ओर ध्यान दिये बिना नहीं रहा जा सकता है। इसी प्रकार बालों के बीच सीम-सी
खिची सिन्दूरी रेखा के किनारों पर जैसे मोती गूंथे गये हैं। उसकं अधरों के खुलते ही दंतपंक्तियाँ
एकबारगी बिजली के सदृश रह-रहकर चमक जाती हैं।
यदि नायिका का रूप-सौन्दर्य लावण्ययुक्त और अनुपम है तो उससं जरा भी कम नायक
- Bhartendu Harishchandra.......... Kavy
का सौन्दर्य नहीं है बल्कि कवि दानों के सौन्दर्य का अंकन समानता के धरातल पर करता हुआ दिखायी देता है।
राधा अपनी सखी के प्रति कृष्ण के सौन्दर्य के सम्बन्ध में कथन करती
राधा अपनी सखी के प्रति कृष्ण के सौन्दर्य के सम्बन्ध में कथन करती
हुई स्पष्टतया कहती है कि, “कि कहब है
सखि, कान्हक रूप।
सखि, कान्हक रूप।
के पति आएब सपन-सरूप।। अभिनव जलधर सुन्दर देह।
पीत वसन जनि दामिनि रह।। सामर-झामर कुटिल सुकंश।
काजर साजल मदन सवस।। जातकि केतकि कुसुमसुवास।
फुलसर मनमथ तेजल तरास।। विद्यापति कह कि बोलब आर।
सुन कएल विहि मदन भण्डार।।" स्पष्ट है कि कृष्ण सौन्दर्यागार हैं। विरह प्रेम की कसौटी के रूप में मान्य है।
नायिका की स्थिति परदेस में रह रहे अपने प्रेमी के वियोग में अत्यंत दयनीय है
नायिका की स्थिति परदेस में रह रहे अपने प्रेमी के वियोग में अत्यंत दयनीय है
वह अपनी सखी से कहती भ कि.
"सखि हे हमर दुखक नहि ओर
इ भर बादर माह भादर
भुवन भरि बरिखन्तिया कन्त पाहुन काम दारुन
सघन खर सर हन्तिया।।''
+
"चानन भेल विषम सर -
भूषन भेलं भारी।।
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